प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 147

प्रेम सत्संग सुधा माला

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संत की सात्विक आज्ञाओं के पीछे प्राण तक विसर्जन करने के लिये प्रस्तुत रहें

जिस पर भगवान् की कृपा का प्रकाश हो जाता है, उसी को विशुद्ध सच्चे संत के दर्शन होते हैं, उसी को वे मिलते हैं। किंतु कभी-कभी ऐसा भी हो ही जाता है, नहीं-नहीं, प्रायः ऐसा ही हो जाता है कि जैसे किसी साग बेचने वाली को हठात् कोई अनमोल हीरा मिल जाय, वैसे ही कोई हठात्— बिना किसी प्रयास से, किसी परम विशुद्ध सच्चे संत के सम्पर्क में आ जाय।

हम शायद सोच सकते हों कि ‘मुझे तो परम विशुद्ध सच्चे संत अवश्य मिल गये हैं और मैं— मैं तो साग बेचने वाली की श्रेणी में कदापि नहीं हूँ’ जो अनमोल, कभी नहीं देखे हीरे की कीमत नहीं जानती;मैं तो संत-महिमा को जानता हूँ, उसका उपभोग करता हूँ, संत का आदर करता हूँ; मेरा जीवन तो उसके लिये ही, उन पर ही न्योछावर हो चुका है।’ बस यहीं— यदि हमारे मन में, स्वप्न में भी ऐसी विचारधारा चल पड़ती है तो यह हमारा नितान्त भ्रम है। इसभ्रम को हम जितना शीघ्र सर्वथा परित्याग कर देंगे— उतनी ही शीघ्रता से हमारे श्रेयका मार्ग प्रशस्त होकर भगवान् के सच्चे प्रकाश का हमें अवश्य-अवश्य शीघ्र-से-शीघ्र साक्षात्कार होकर ही रहेगा।

सच तो यह है कि जिसे सचमुच परम विशुद्ध संत मिल जाते हैं, जो तनिक भी उनकी महिमा का ज्ञान रखता है, उनकी महिमा का तनिक भी उपयोग अपने जीवन में करता है— चाहे लचड़-पचड़ विश्वास के साथ ही तनिक भी, किंतु सच्चे अर्थ में उन पर न्योछावर हो जाने की लालसा जिसमें जाग उठी है— उसे संत भगवान् से भी अधिक प्रिय लगने लगते हैं। यदि ऐसा नहीं हुआ है, उसके जीवन में तो या तो उसे असली परम विशुद्ध संत मिले ही नहीं हैं या वह है उसी श्रेणी में— बस, उस साग बेचने वाली की श्रेणी में ही, जिसने प्रकाश देने वाला एक पत्थर का टुकड़ा समझकर हीरे को लेकर— उन अनमोल हीरे को अपने घर लाकर ताखे में रख दिया है।उसने भी संत को एक बड़ा ही सज्जन व्यक्ति समझकर अपने मन रूपी घर के किसी कोने में स्थान दे रखा है— संत-मिलन का अर्थ उसके जीवन में इतना ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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