प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 143

प्रेम सत्संग सुधा माला

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ठीकऐसे ही, अभी हमारे पास थोड़ा समय बच गया है। हम जगत् के भोगों को बटोरनाछोड़कर अपना मुँह भगवान् की ओर कर लें, जो साधना संत-शास्त्र बताते हैं, उस पथ पर चल पड़ें; तेजी से दौड़ पड़ें तो सूर्य छिप भी गया तो अँधेरा होते-न-होते भगवान् हमें मिल जायँगे- जरूरत होते ही आवश्यकता भर प्रकाश हमें मिल जायगा; किसी भी पाप के गर्त में गिरने से बचा लिये जायँगे। हमें हानि पहुँचाने वाले हमारे पास फटक तक नहीं सकेंगे। कोई-सा दुःख- साधन के सम्बन्ध को लेकर- होते ही हमें एक अद्भुत शान्ति का अनुभव करा दिया जायगा और जब साधन- पथ पर आगे बढ़ने में असमर्थता का अनुभव करने लगेंगे तो उसी क्षण- एक प्रेमिल स्पर्श की अनुभूति करा दी जायगी और हममें नया ओज, नयी ताकत आ जायगी। दोष दर्शन की वृत्ति को पूर्ण शक्ति लगाकर दबाने की चेष्टा करें

जिससमय हम दूसरे का दोष देखने चलते हैं, उस समय हमें यह सोच लेना चाहिये कि हम अपने-आपको उसकी अपेक्षा बहुत अधिक ऊँचा और उस दोष से शून्य अनुभव कर रहे हैं। यह ऐसी भ्रान्ति है, जो ऊँचे-से-ऊँचे साधकों तक का पिण्ड नहीं छोड़ती। असली महासिद्ध में इस दोष-दर्शन की वृत्ति का अत्यन्त अभाव होता है और वह वृत्ति है इतनी गंदी कि साधक को परमार्थ के साधन पथ से घसीटकर पीछे की ओर नरक के गर्त में प्रायः डाल ही देती है।

यह भी एक बड़े विचारने की बात है कि हम जिस दोष का दर्शन दूसरे में कर रहे हैं, वह दोष यदि हममें नहीं होता, तो हमें वह दोषदूसरे में दीखता ही नहीं, यह ऐसा सत्य है कि जिसका खण्डन हो ही नहीं सकता। यद्यपि बुद्धिवाद तो परमार्थ-सत्य को छू ही नहीं सकता, किंतु बुद्धिवाद के तर्कों को भी आगे चलकर इस प्रश्न पर स्वीकार कर ही लेना पड़ेगा कि हम जिस कूड़े का अनुभव अन्यत्र कर रहे हैं, वह कूड़ा वस्तुतः हमारे ही अंदर है और उसी का प्रतिबिम्ब हम दूसरे पर डाल रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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