प्रेम सत्संग सुधा माला
आज जिसने साधन किया और साधन से भगवान् की नित्य-लीला में सम्मिलित हुआ, वह साधनसिद्ध सखा माना जायगा। पर यह मानना भी हमारी-आपकी दृष्टि से है; श्रीकृष्ण की दृष्टि से तो स्वयं वे सदा हैं और सदा रहेंगे। यही उनकी विलक्षण, मन-बुद्धि से अत्यन्त परे की लीला है कि वे ही जीव, वे ही जगत्, वे ही जगत् के मालिक-तीनों बने हुए हैं; परंतु जब तक हम अपने-आपको अनुभव करते हैं तब तक यह ऊँच-नीच का भेद बना ही रहेगा। इसका रहस्य वाणी एवं मन से समझा ही नहीं जा सकता। शास्त्रएवं संत कहते हैं- जो है, भगवान् हैं; जो नहीं है, वह भगवान् है; तथा है, नहीं है- इन दोनों से परे भी भगवान् का रूप है, जो अनिर्वचनीय है। पर यह स्थिति भी तो वाणी में आ गयी, इसलिये असली नहीं है। वह इतनी विलक्षण स्थिति है कि कुछ भी कहना नहीं बनता। यही बात दिव्यलीला के रहस्य में भी है। देखने पर ही कोई यत्किंचित् समझ सकता है कि वह क्या वस्तु है। सब भगवान् हैं, यही पहली स्थिति है- जो साधना से प्राप्त होती है और तब फिर असली स्थिति प्राप्त हो जाती है, जो अनिर्वचनीय है। बिलकुल कोई वस्तुभगवान् के सिवा है ही नहीं, यह ज्ञान जिसे है, और जिसे नहीं है, वे दोनों भी भगवान् ही बने हुए हैं। पर यह बात कही जाती है कि जब तक सुख-दुःख होता है, अहंकार है, तब तक साधना करो। परंतु यह अहंकार, यह सुख-दुःख भी उन्हीं का रूप है; फिर साधना क्यों करें? इसीलिये कि प्राणी की इच्छा है कि मेरा दुःख मिट जाय। 108- मेरी राय तो यह है कि मनुष्य सृष्टि तत्व का, भगवान् के लीला तत्व का निर्णय करने, रहस्य समझने के फेर में न पड़कर सरल चित्त से भगवान् का चिन्तन करे, साधना में जुट जाय। बाह्य साधना के अतिरिक्त मानसिक भगवत्सेवा की साधना में जुट जाय। नियमबाँध ले कि इतनी-इतनी सेवा तो करनी ही पड़ेगी। यदि यह नहीं हुआ तब तो फिर आज हमारा सबसे खराब दिन बीता। नहीं होने पर कुछ प्रायश्चित का नियम ले ले, तब होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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