प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 138

प्रेम सत्संग सुधा माला

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106- भगवान् के विषय में एक विलक्षण बात है। वह यह कि जो व्यक्ति जिस बात के लिये जिस रूप में विश्वास कर ले कि भगवान् हमारे लिये यह इसी रूप में कर देंगे, फिर निश्चय समझिये बिना कुछ भी किये भगवान् उसके लिये वही उसी प्रकार कर देंगे। यह नहीं कि भजन करो, स्मरण करो। केवल मन में यह धारणा कर ले कि बस, भगवान् हमारे लिये तो यह कर ही देंगे। भगवत्प्रेम से लेकर तुच्छ संसार के विषयों तक के लिये यह नियम लागू है- सबके लिये लागू है।

कोई कहे कि ‘अमुककार्य में आज तक तो ऐसा नहीं हुआ, क्या तुम्हारे लिये पहले-पहल होगा?’ इसका जवाब यह है कि यदि तुमने सचमुच यह बात उन पर ढार दी है तो संसार के इतिहास में पहले-पहल तुम्हारे लिये होगा और अवश्य होगा।

व्रज प्रेम का नियम है- अमुक बात होने पर ही यह प्राप्त हो सकता है। पर यदि सचमुच उन पर कोईढार दे कि हमें तो यह हुए बिना ही प्रेम देना पड़ेगा, तो ठीक मानिये, उसके लिये ही नया नियम बनेगा। ठीक उसकी मान्यता के अनुरूप नियम बनाकर भगवान् उसे व्रज प्रेम का दान कर देंगे।

107-जब दिव्य वृन्दावन-लीला का प्रापंचिक जगत् में प्रकाश होता है, तब उसमें भी कई रहस्य की बातें होती हैं। गत बार जो नन्द-यशोदा हुए थे, उनके विषय में भागवत में लिखा मिलता है कि वे दोनों तपस्या से नन्द-यशोदा बने थे। होता यह है कि जो नित्य लीला वाले नन्द-यशोदा हैं, उन्हीं का इनमें आवेश हो जाता है। भागवत की यहाँ वाली जो लीला है, वह भी सच्चिदानन्दमयी ही है; पर किसी-किसी अंश में उसमें प्राकृत संयोग भी रहता है; क्योंकि यह लीला प्रकट ही इसलिये की जाती है कि इसके द्वारा और-और भक्तों को इसमें शामिल किया जाय। जो नित्य लीला है, उसमें कंस आदि का वध नहीं होता। वह लीला सर्वव्यापक है, पर प्रत्येक द्वापर के अन्त में उसी वृन्दावन के स्थान पर प्रकट होती है। वह लीला है तो यहाँ भी, इस कलम में भी है, विश्व के अणु-अणु में है; पर प्रकट वहीं उस वृन्दावन में हुआ करती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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