प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 136

प्रेम सत्संग सुधा माला

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कोर्टमें मुन्सिफ के सामने मामला पेश हुआ। मुन्सिफने पूछा‘गवाह आया है?’ ब्राम्हण बोला‘हाँ, हुजूर! आया है।’ चपरासी ने आवाज लगायी‘बिहारी गवाह हाजिर हो!’ पहली बार कोई जवाब नहीं, दूसरी बार कोई जवाब नहीं। तीसरीबार जवाब आया‘हाजिर है।’ इतने में लोगों ने देखा एक व्यक्ति अपने सारे शरीरकोकाले कम्बल से ढके हुए आया और गवाह के कटघरे में जाकर खड़ा हो गया। उसने जरा-सा मुँह का पर्दा हटाकर मुन्सिफ को देख लिया। बस, मुन्सिफके हाथ से कलम गिर गयी; वह एकटक कई मिनट तक उसकी ओर देखता रहा। उसकी ऐसी दशा हो गयी, मानो वह बेहोश हो गया हो।

कुछ देर बाद मुन्सिफ बोला‘आप इसके गवाह हैं?’ वह काले कम्बल वाला बोला‘जी हाँ।’ आपका नाम? ‘बिहारी।’ आपको मालूम है, इसने रूपये दिये हैं? इस पर बड़ी सुन्दर ऊर्दू भाषा में बिहारी गवाह बोले‘हुजूर! मैं सारे वाकयात अर्ज करता हूँ।’ इसके बाद बताना शुरू किया। अमुक तारीख को इतने रूपये, अमुक तारीख को इतने रूपये तारिख वार करीब सौ तारीख दी। मुददई का वकील उठा और बोला‘हुजूर! यह आदमी है कि लायब्रेरी, कभी आदमी को इतनी तारीख याद रह सकती है?’ बिहारीगवाहबोले‘हुजूर! मुझे ठीक-ठीक याद है, जब यह रूपये देने जाता था, तब मैं साथ रहता था।’ मुन्सिफ‘क्या रूपये बही में दर्ज हुए हैं?’ बिहार गवाह‘जी हाँ, सब दर्ज हुए हैं, पर नाम नहीं है। रोकड़-बही में उन-उन तारीखों में रकम जमा है, पर इसका नाम नहीं है। दूसरेझूठेनाम से जमा है।’

मुन्सिफ‘तुम बही पहचान सकते हो?’

बिहारी‘जी हाँ।’

मुन्सिफ ने उसी समय कोर्ट बर्खास्त किया और दो-चार चपरासियोंके साथ मुद्दई के मकान पर चला गया। साथ-साथ बिहारी गवाह थे। किसी ने गवाह का शरीर नहीं देखा, केवल मुन्सिफ ने मुँहदेखा था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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