प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 119

प्रेम सत्संग सुधा माला

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कहने का तात्पर्य यह है कि एक लाइन पढ़कर उसमें क्या-क्या चीज आयी है, यदि उन सब पर एक-एक सेकण्ड भी मन रुककर उन्हें देख ले तो फिर छोटी लीला में भी चार-छः घंटे लग जायँ। अभ्यास करने से होता है। मेरी समझ में यही बात आती है तथा समस्त शास्त्रों में एवं वैष्णव संतों के वचनों में यही बात मिलती है कि मन को स्थिर करना ही पड़ेगा और स्वयं भगवान् ने जैसा कहा है अभ्यास और वैराग्य दोनों को साथ-साथ पूरी तत्परता से करने से ही काम बनता है। सच मानिये, इस व्रज लीला में मन फँसाने के लिये विशेष परिश्रम की आवश्यकता ही नहीं है। यहाँ तो एक के बाद एक, एक के बाद एक, इस प्रकार मन जहाँ जाय, कुछ भी सोचे, उसी स्फुरण के साथ व्रज की किसी चीज को जोड़ देने से ही ध्यान होने लग जाता है।

मन की जिस समय विशेष चंचलता हो, उस समय उसे खूब तेजी से नचाना आरम्भ करें। हमें लिखने में तो देर लगती है, पर चंचलता के समय उसकी बड़ी सुन्दर दवा यह है कि जोर से उच्चारण करें, हरे राम, कृष्ण गोविन्द। फिर प्रारम्भ करें राधाकुण्ड, निकुंज ललिता, विशाखा, चित्रा, वेदी, नदी, यमुना, गोवर्धन, गाय। इस प्रकार पागल की तरह मन के सामने जो भी कोई चीज आये, उसे व्रज के भाव में जोड़ दें। मन जब कुछ भी सोचेगा, आप विचारकर देख लें, देखी-सुनी हुई बात को ही सोचेगा। जिस समय किसी स्त्री पर ध्यान जाय, उस समय पागल की तरह गोपी, गोपी, गोपी रटने लग जायँ। लड़के पर ध्यान जाय- बस, ठीक उसी समय सुबल, श्रीदाम, स्तोक, मधुमंगल पागल की तरह रटें। इसके बाद ध्यान में आया घर-मकान- बस; ठीक वहीं, उसी स्थान पर देखें ना, यहाँ तो कुंज है, महल है, ना, वह देखो, ललितारानी का कुंज है। अहा! कैसी झाड़ी है, कैसा सुन्दर सरोवर है, कैसा उपवन है। यह शब्द उच्चारण होते ही फिर आगे चलकर वह चित्र भी सामने आ जायगा। पर यह तभी होगा जब कि जीवन का उद्देश्य बस, एक ही रह जाय- चाहे मरेंगे या जीतेंगे, अब तो चौबीसों घंटे व्रजमण्डल में ही मन रमेगा, व्रज के लता-पत्र कुछ भी बनेंगे, पर अब तो बनेंगे ही।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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