प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 106

प्रेम सत्संग सुधा माला

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राजदरबार का कानून, बैठना-उठना, बातचीत, हँसना-बोलना सब मर्यादा से सीमित रहता है; वहाँ सम्राट्पन (ऐशवर्य) बात-बात में रहेगा। पर महल में सब नियम ही दूसरे होते हैं, वहाँ केवल घर-गृहस्थी का प्रेममय नियम होता है। भगवान् के बड़े-बड़े ऊँचे-ऊँचे भक्त कोई राजमन्त्री की तरह समस्त विश्व की सँभाल रखते हैं, कोई बहुत बड़े अधिकारी की तरह काम करते हैं, यहाँ तक कि युवराज की तरह, भगवान् के पुत्र की तरह अधिकार रख सकते हैं, पर इतना अधिकार रखकर भी राजमहल की निर्बाध प्रेममयी स्थिति का उनको कुछ भी पता नहीं हो सकता; वे राजरानी, पटरानी को देख तक नहीं सकते- जान तक नहीं सकते कि उनकी शकल-सूरत कैसी है?

भगवान् का द्वारका का रूप, मथुरा का रूप, अयोध्या का रूप- ये सब ऐश्वर्य के रूप हैं। बहुत ऊँचे-ऊँचे संत उनकी इस ऐशवर्य लीला में स्थान पाकर भगवान् की तरह-तरह की सेवा करते हैं। पर वृन्दावन का जो रूप है, वह राजमहल का रूप है तथा जैसे राजमहल की एक दासी भी राजमन्त्री को ही नहीं युवराज तक पर आज्ञा चला देती है, वैसे ही श्रीगोपीजनों की आज्ञा ब्रम्हा-विष्णु-महेश तक पर चलती है। अवश्य ही जिस प्रकार राजमहल में दिन-रात आनन्दित रहने वाली राजरानियों को, दासियों को यह अवकाश नहीं कि राज्य में क्या हो रहा है यह देखें, वैसे ही मधुर लीला में जिन्हें स्थान प्राप्त हो जाता है, उनको उस अनिर्वचनीय आनन्द से छुट्टी ही नहीं मिलती कि जाकर देखें- बाहर राज्य में क्या कैसे हो रहा है।

जो रात-दिन श्रीकृष्ण को रोब में बैठे देखता है, उसे क्या पता कि ये ही श्रीकृष्ण महल में जाकर न जाने क्या-क्या करते हैं। वह तो दिन-रात दरबारी कानून की मर्यादा में रहता है। मर्यादा की जो लीला होती है, उसी में उसका मन पगा हुआ होता है।

जैसे साँझ हुई कि महल की रानियाँ अटारी पर चढ़कर राज्य में क्या हो रहा है- यह देखना चाहें तो देख सकती हैं, पर राज्यवाला कोई भी उनको देख नहीं सकता। वैसे ही जो मधुर लीला के भक्त हैं, वे कभी इस प्रापंचिक जगत् की लीला तथा ऐश्वर्यमयी लीला को देखना चाहें तो देख सकते हैं। पर जो दिन-रात मिस्त्री के रस को चख रहा है, उसका गुड़ पर मन थोड़े ही चलता है। वह तो ऐसे विलक्षण आनन्द में छका रहता है कि क्या पूछना। उनको ऐश्वर्य की बात सुनने-कहने की भी फुरसत नहीं होती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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