प्रिय ! तुम ही हो प्राणिमात्रके बन्धु, आत्मा अति प्रियतम।
पाकर छोड़ जाय जो तुमको, महामूर्ख वह, पतित, अधम॥
तुम्हीं बताओ परम धर्मविद् ! नित्यप्रिय ! तुमसे कर प्रीति।
भजे अन्य दुःखदको फिरसे, क्या है कभी उचित यह नीति ?
छोड़ कहाँ हम जायँ तुम्हें अब, चलते नहीं चरण पद एक।
सुखसे लूट सभी का मन-धन, चले बताने हमें विवेक’॥
आत्माराम-शिरोमणि सत्-चित्-परमानन्दरूप पर-धाम।
योगेश्वर-ईश्वर सब-लोक-महेश्वर नित्यतृप्त निष्काम॥
अज-भव-शेष-सनक-नारद सब करते नित जिनका गुण-गान।
प्रेममयी ब्रज-बनिताओं के शुद्ध प्रेम-बस वे भगवान॥
अङ्ग विमल शुचि स्पर्श-दान कर किया सभी को पावन, धन्य।
भावोद्दीपन किया, जगाया शुद्ध-काम रतियोग्य अनन्य॥
आत्मरमण फिर किया परम शुचि पूर्णकाम हरिने अभिराम।
शारदीय उन शशधर-किरण-सुशोभित रातों में रस-धाम॥