प्रियतम कभी भूलकर भी, पर नहीं ताकते उनकी ओर।
सर्वाधिक क्यों? प्यार मुझे देते अनन्यप्रियतम सब ओर॥
रहता अति संताप मुझे प्रियतमका देख बढ़ा व्यामोह।
देव मनाया करती मैं-’प्रभु ! हर लें सत्वर उनका मोह’॥
मेरा अति सौभाग्य, देवने सुन ली मेरी करुण पुकार।
मिटा मोह मोहनका, अब वे प्राप्त कर रहे मोद अपार॥
पाकर सुन्दर चतुरा किसी नागरीको वे प्राणाराम।
भोग रहे होंगे अनुपम सुख, पूर्ण हुआ मेरा मन-काम॥
परम सुखवती आज हुई मैं, खुले भाग्य मेरे हैं आज।
सुनकर श्याम-सँदेश सुखाकर, मुद-मङ्गलमय, जीवन-साज॥
नहीं, नहीं ! ऐसा हो सकता नहीं कभी प्रियतमसे काम।
मेरा-उनका अमिट, अनोखा, प्रिय, अनन्य सम्बन्ध ललाम॥
मुझे छोड़ ’वे’, उन्हें छोड़ ’मैं’-रह सकते हैं नहीं कभी।
’वे मैं’ ’मैं वे’-एक तत्त्व हैं; एक रूप हैं भाँति सभी॥
अरे, अरे उद्धव ! देखो तो पुनः प्रकट हो गये सुजान।
प्रेमभरी चितवन सुन्दर, छायी अधरोंपर मृदु मुसुकान॥
ललित त्रिभङ्ग, कुटिल कुन्तल, सिर मोर-मुकुट, कल कुण्डल कान।
धर मुरली मुरलीधर अधरोंपर हैं छेड़ रहे मधु तान॥
प्रेम-सुधा-सागर राधामें उठतीं बिबिध-बिचित्र तरंग।
देख विमुग्ध हुए उद्धव अति, बरबस विवश हुए सब अङ्ग॥
उदित नवीन प्रेम-सरिता शुभ बढ़ी अचानक, ओर-न-छोर।
भू-लुण्ठित तन धूलि-धूसरित शुचि, उद्धव आनन्द-विभोर॥