प्रभु, मेरे गुन-अवगुन न बिचारौ।
कीजै लाज सरन आए की, रवि-सुत-त्रास निबारौ।
जोग-जग्य-तप-नहिं कीन्हौ, बेद बिमल नहिं भाख्यौ।
अति रस-लुब्ध स्व न जूठनि ज्यौं, अनत नहीं चित राख्यौ।
जिहिं-जिहिं जोनि फिरयौ संकट-बस तिहिं-तिहिं यहै कमायौ।
काम-क्रोध-मद-लोभ-ग्रसित ह्वै विषय परम विष खायौ।
जौ गिरिपति मसि धोरि उदधि मैं, लै सुरतरु विधि हाथ।
मम कृत दोष लिखै वसुधा भरि, तऊ नहीं मिति नाथ।
तुमहिं समान और नहिं दूजौ काहि भजौं हौ दीन।
कामी, कुटिल, कुचील, कुदरसन, अपराधी, मति-हीन।
तुम तौ अखिल, अनंत, दयानिधि, अविनासी, सुख-रासि।
भजन-प्रताप नाहिं मैं जान्यौ, परयौं मोह की फाँसि।
तुम सरबज्ञ, सवै विधि समरध, असरन-सरन मुरारि।
मोह-समुद्र सूर बूड़त है, लीजै भुजा पसारि।।111।।