पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
22. शिशुपाल-वध
भगवान का भला जीव क्या अपराध करेगा। अपने प्रति किये गये अपराध को तो ये उत्तमश्लोक देखते ही नहीं, उसकी गणना तो क्या करेंगे किन्तु भक्तापराध क्षमा करना वे नहीं जानते। भक्त के प्रति किया गया प्रत्येक अपराध ऐसा है कि उसके लिए अपराधी का वध कर दिया जाय। अत: शिशुपाल का वह प्रत्येक अपशब्द जो भक्तों में किसी को कहा गया, श्रीकृष्ण की गणना में आता गया और अब ऐसे अपराधों की संख्या सम्भवत: सौ पूरी हो चुकी थी। उन पुरुषोत्तम का मेघगम्भीर स्वर गूँजा – ‘इसने आज भरी सभा में जैसा दुर्व्यवहार किया है, आप सबने देखा ही है। मैं इसके अनेक अन्याय बुआ की बात मानकर सहता रहा हूँ; किन्तु अब अधिक इसकी बातें मैं सहन नहीं कर सकता।’ शिशुपाल के सिर पर तो काल आ गया था। वह अट्टहास करके बोला – ‘कृष्ण ! तुझे सौ बार गरज हो तो मेरी बातें सहन कर सुन अन्यथा जो तुझसे हो सके कर ले। मैं तेरी प्रसन्नता या क्रोध की किञ्चित भी चिन्ता नहीं करता।’ भीमसेन, सहदेव, संजय आदि लोगों के लिए भगवान पुरुषोत्तम के प्रति कहे गये ये कठोर वचन असह्य हो गये। भगवन्निन्दा सुनना भी महापाप है। इन लोगों ने हथियार उठा लिये। यह देखकर शिशुपाल ने सबकी भर्त्सना की – ‘तुम सब एक साथ मरना चाहते हो तो आ जाओ। मैं आज इस ग्वाले के साथ इसके सब साथियों को यमपुर भेज दूँगा।’ शिशुपाल झपटा। श्रीकृष्ण का दक्षिण कर ऊपर उठा और वाम कर से उन जनार्दन ने अपनों को संकेत करके रोक दिया। उनके दक्षिण करमें उनका कोटि सूर्य समप्रभ सहस्रार महाचक्र चमका और दूसरे ही क्षण शिशुपाल का छिन्न मस्तक भूमि पर गिर पड़ा। उसका शरीर भी दो पद बढ़कर गिर गया। शिशुपाल के शरीर से एक अद्भुत ज्योति निकली। इतनी महान ज्योति कि दिशाएँ उससे प्रकाशित हो उठीं। सबके देखते हुए उस ज्योति ने श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा की और फिर उनके श्रीचरणों में लीन हो गयी। शिशुपाल के समर्थक नरेश प्राण लेकर उस सभा से निकल भागे और अपने रथों को दौड़ाते भागते चले गये। उन्हें भय लगा कि श्रीकृष्ण का चक्र अब उनका भी सिर समेट लेने वाला है। युधिष्ठिर ने तत्काल भीमसेन से कहा – ‘यह अपना सम्बन्धी ही है। तत्काल इसकी अन्त्येष्टि की जानी चाहिए।’ शिशुपाल का शव अविलम्ब उठाया गया। स्थान स्वच्छ कर दिया। सायंकाल से पूर्व ही यमुना तटपर शिशुपाल का शरीर चिताग्नि में जल चुका था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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