पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
22. शिशुपाल-वध
यह घटना शिशुपाल ने बालक रहते ही सुनी थी और चिढ़ गया था। उसका मत था- ‘वह स्वयं तो चतुर्भुज वासुदेव बना हुआ है और मुझमें एक साथ नारायण तथा शंकर के लक्षण थे, उसे ईर्ष्या वश उसने नष्ट कर दिया।’ जिस जरासन्ध ने उसे धर्मपुत्र बनाया था, जिसे वह पिता के समान मानता था, उसे श्रीकृष्ण ने छलपूर्वक भीम के हाथों मरवा दिया। उस समय शिशुपाल मन मारकर रह गया क्योंकि जरासन्ध का पुत्र सहदेव, जिसे वह छोटे भाई के समान मानता था, पाण्डवों के पक्ष में हो गया था और विरोध करने का अर्थ उस पितृहीन बालक को युद्ध करना भी हो सकता था। शिशुपाल के मत से सहदेव बालक था। श्रीकृष्ण की प्रथम पूजा का प्रस्ताव उसने अज्ञान के कारण किया था, किन्तु सबने उसका समर्थन कर दिया, यह शिशुपाल की सहन शक्ति के बाहर था। जैसे ही जयनाद का शब्द शान्त हुआ, कोलाहल रुका, वह उठा खड़ा हुआ और हाथ उठाकर चिल्लाकर कठोर वाणी में कहने लगा- ‘कितने आश्चर्य की बात है कि इस विद्वानों और बड़े वृद्ध लोगों की सभा में सब की बुद्धि बालक सहदेव के प्रस्ताव से भ्रान्त हो गयी। पाण्डवों ने कृष्ण की पूजा करके अपने योग्य काम नहीं किया है। भीष्म की बुद्धि भी सठिया गयी है। इनके जैसे धर्मात्मा भी जब मनमाना काम करने लगें तो जगत में अपमानित ही तो होंगे कृष्ण राजा नहीं हैं। अत: राजसभा में सम्मान का पात्र भी नहीं हो सकता। आयु में भी वह सबसे वृद्ध नहीं है, इसके तो पिता तथा पितामह भी जीवित हैं।’ अब शिशुपाल ने पाण्डव पक्ष के लोगों के मन में भेद उत्पन्न करने का प्रयत्न किया- ‘यदि इसे तुम लोगों ने अपना हितैषी और मित्र माना तो क्या यह महाराज द्रुपद से बड़ा हितैषी है? यदि तुमने आचार्य मानकर इसकी पूजा की है तो द्रोणाचार्य की उपस्थिति में इस गोप की पूजा क्यों? ऋत्विक की दृष्टि से भी वयोवृद्ध श्रीकृष्ण द्वैयापन वेदव्यास की पूजा उचित थी। इच्छा मृत्यु पुरुष श्रेष्ठ अपने पितामह भीष्म के रहते तुमने कृष्ण की पूजा क्यों की ? तुम्हें पराक्रमी की पूजा करनी थी तो अश्वत्थामा की करते। राजाधिराज दुर्योधन यहाँ हैं, भरतवंश के आचार्य कृप हैं, किम्पुरुषों के आचार्य द्रुम हैं। |
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