पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
21. अग्र-पूजा
धर्मराज ने, उनकी महारानी ने, उनके भाइयों, मंत्रियों ने तथा उनकी पत्नियों ने वह भुवन पावन चरणोदक मस्तक पर चढ़ाया ही, भीष्म, विदुर जैसे सहस्र: भगवत्प्रभाव के ज्ञात उस पादोदक के प्रार्थी होकर आगे आ गये और जैसे सम्राट ने सप्रेम स्वयं उसका वितरण किया। रत्न जटित पीताम्बर, अतिशय मूल्यावन आभरण, अंगरागादि से युधिष्ठिर ने श्रीकृष्णचन्द्र को सत्कृत किया किन्तु अनुराग के आधिक्य के कारण उनके नेत्रों से अश्रु भरे थे, शरीर का रोम-रोम उत्थित हो रहा था। समस्त देह कांप रहा था। वे कठिनाई से यह सत्कार सम्पन्न कर सके। युधिष्ठिर के पश्चात् भीमसेन अर्जुन, सहदेव तथा नकुल ने भी सपत्नीक आगे आकर मधुसूदन का अर्चन किया। उनको लगा कि आज वे कृत-कृत्य हो गये। जीवन की सम्पूर्ण सफलता उन्हें आज प्राप्त हुई। वाद्यों की ध्वनि से गगन गूँज रहा था। पुष्पवर्षा हो रही थी। लोग हर्षोन्मत्त होकर जयनाद कर रहे थे और सहस्र: शंख एक साथ बज रहे थे। विप्रों का मन्त्रपाठ, मुनियों का स्तवन, कोई कुछ सुन नहीं रहा था। सब जयध्वनि या स्तुति कर रहे थे। पूरा यज्ञीय भाग पुष्प वर्षा से आच्छादित होता जा रहा था। धरा के साथ गगन से भी पुष्प वर्षा हो रही थी और वहाँ भी वाद्य-ध्वनि तथा जय-ध्वनि गूँज रही थी। |
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