पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
18. जरासन्ध–वध
जरासन्ध खुलकर भीमसेन के पौरुष की प्रशंसा करता था और भीमसेन मगधराज के बल को विरुद देते थे। जरासन्ध ने कई बार कहा- ‘जीवन में मुझे प्रथम बार युद्ध का वास्तविक आनन्द दिया है आपने।’ जब तक कोई अपने पौरुष पर भरोसा करके प्रयत्न कर रहा है, श्रीकृष्ण तटस्थ दर्शक ही रहेंगे। उनका स्वभाव है कि जब प्राणी अपने बल का आश्रय त्यागकर उनकी ओर सहायता के लिए देखता है, तब उनकी शक्ति सक्रिय होती है। उन्होंने भीम के शरीर पर अपना अमृतस्यन्दी हाथ घुमाया। भीम को लगा कि उनका शरीर पीड़ा, श्रान्ति से रहित होकर स्फूर्ति तथा शक्ति का भण्डार बन गया है।
उन श्रीमधुसूदन ने कहा- ‘कल मेरे संकेत को समझने का प्रयत्न करना।’ भीम ने हाथ की गदा पूरे वेग से घुमाकर एक दिशा में फेंक दी। गदा जाकर गिरी वहाँ जहाँ राक्षसी जरा कूड़े के ढेर के समीप अपने आवास में रहती थी। उसके लिए वृहद्रथ ने ही एक भव्य मन्दिर बनवा दिया था। वह वहीं अब पूजा-बलि प्राप्त करती थी। भीमसेन की गदा के गिरने से वह मन्दिर ध्वस्त हो गया और जरा उसी में दबकर मर गयी। भीमसेन को गदा फेंकते देखकर जरासन्ध एक क्षण को हिचक गया। इतने में तो भयंकर गर्जना करते भीमसेन टूट पड़े और उसे उठाकर पृथ्वी पर पटक दिया। उसके एक पैर को अपने पैर से दबाकर दोनों हाथों से दूसरा पैर पकड़ा और उसे उठाते चले गये। इस प्रकार जरासन्ध का शरीर उन्होंने बीच से चीर दिया। एक पैर, वृषण आधा पेट, आधी छाती, आधा मुख, आधी नासिका, एक नेत्र, एक कर्ण एक-एक टुकड़े में रह गये। हाथ का टुकड़ा भीमसेन ने दूर फेंक दिया। |
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