पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
3. प्रस्तावना
सब प्राणियों को अभय तभी दिया जा सकता है जब आप स्वयं अपने शरीर से, सम्मान से, सुख से निरपेक्ष हो जायें। देह की क्षुद्रता से तादात्म्य बनाये रखकर सब प्राणियों को अभय देना, सबकी जिजीविषा का सम्मान संभव नहीं है। यहाँ आकर जिजीविषा साधन बन जाती है और विचार करने को बाध्य करती है कि जब सब जीवित रहना चाहते हैं और दैहिक जीवन बिना दूसरों के जीवन को भय उपस्थित किये चल नहीं पाता, तो इस जीवनेच्छा का संदेश ही है कि देह से ऊपर उठो। देह से आप ऊपर न भी उठो तो क्या देह सदा बना रहेगा? देह का अणु-अणु प्रतिक्षण मर रहा है और नूतन अणु उत्पन्न हो रहे हैं। ऐसे मरणधर्मा देह को ‘मैं’ मानकर- इसमें अभिनिवेश करके जिजीविषा विकृत और व्यर्थ हो गयी है। अत: व्यक्ति में विवेक हो तो देह का मोह उसे छोड़ना चाहिये। जिजीविषा अनन्त जीवन से एकत्व प्राप्त करने के लिए है और इसकी सार्थकता है कर्मयोग में। यहाँ यह स्पष्ट समझ लें कि कर्म, निष्काम कर्म तथा कर्मयोग में बहुत अन्तर है। शरीर, मन, वाणी से जो कुछ भी होता है, उसका नाम कर्म नहीं है। वह सब क्रिया है। जैसे श्वास चलना, रक्ता-भिसरण, मल-मूत्रोत्सर्ग तथा दूसरी भी देह, इन्द्रियों की नैसर्गिक क्रियाएं केवल क्रिया हैं, जब क्रिया किसी उद्देश्य के लिए की जाती है, तब उसका नाम कर्म होता है। यह कर्म ही शुभ या अशुभ होता है और पाप अथवा पुण्य-संस्कार उत्पन्न करता है। इसी संस्कार से सुख अथवा दु:ख की प्राप्ति होती है। कर्म से संस्कार, संस्कार से फिर कर्म तथा सुख-दु:ख, यह अनन्त क्रम चलता रहता है। कोई कर्म फल सर्वथा अपने आप में पूर्ण नहीं हो जाता। वह नवीन संस्कार उत्पन्न करता ही है। जैसे भोजन की प्राप्ति शुभ कर्म का फल है, किन्तु भोजन खाद्य-अखाद्य, समय-असमय, उचित विधि या विधिहीन आदि भेद से नवीन शुभाशुभ संस्कार भी उत्पन्न करता है। ’देहवान्न ह्यकर्मकृत।'[1] शरीरधारी केवल क्रिया तब ही अपने को सीमित नहीं रख सकता। उससे कर्म भी होगा ही और तब वह अपने संस्कार भी उत्पन्न करेगा। ऐसा अवस्था में कर्म बन्धन से छुटकारा कैसे हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 6-1-44
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