पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
16. राजसूय यज्ञ का प्रस्ताव
युधिष्ठिर ने सबकी सम्मत्ति सुन ली तब द्वारिका दूत भेजा। उनका अपना मत था- ‘मेरे एक मात्र आधार श्रीकृष्णचन्द्र हैं। वे सर्वेश्वर जिसे जो बनाना चाहें, सहज बना दे सकते हैं। उनकी इच्छा की पूर्ति में ही प्राणी का मंगल है। वे क्या चाहते हैं, यह जाने बिना कोई प्रयत्न मैं नहीं करूँगा और राजसूय यज्ञ भले पाण्डवों का माध्यम बनाकर वे सम्पन्न करा दें, इसके द्वारा अर्चा तो हमें उनकी ही करनी है, अत: वे क्या चाहते हैं, यह जानना पहले आवश्यक है।’ धर्मराज का दूत द्वारिका पहुँचा तो द्वारिकाधीश सपरिवार इन्द्रप्रस्थ की यात्रा के लिए प्रस्तुत हो चुके थे। देवर्षि नारद ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ करने की कामना यहाँ पहिले ही प्रकट कर दी थी और उद्धव की सम्मत्ति के अनुसार- राजसभा में इस महत्त कर्म में पाण्डवों का समर्थन करने का प्रस्ताव पास हो चुका था।[1] धर्मराज के दूत इन्द्रसेन को कुछ कहना नहीं पड़ा। उसके साथ सन्देश भी तो इतना ही था कि युधिष्ठिर श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन करना चाहते हैं। इस बार द्वारिकानाथ ने बड़े भाई तथा अपनी पत्नियों, पुत्रों आदि के साथ इन्द्रप्रस्थ की यात्रा की। श्रीकृष्णचन्द्र के आगमन का समाचार तो इन्द्रप्रस्थ के लिए- वहाँ सबके लिए ही अपने अत्यन्त स्नेही स्वजन के चिर-प्रवास के पश्चात् लौटने के समाचार के समान था। जो भी जा सकते थे, सम्राट से अन्त्यज तक सब स्वागत के लिए नगर से बाहर दूर तक दौड़े गये। नगर की नारियों दधि, कुमकुम, केशर, अक्षत, लाजा, पुष्प की वर्षा के साथ भुवन-सुन्दर का स्वागत अपने छज्जों पर से किया। श्रीबलराम-श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर की वन्दना की और उनके सब भाइयों से यथोचित रीति से मिले। बुआ कुन्ती को दोनों भाइयों, उनके पुत्रों तथा रानियों ने प्रणाम किया। द्रौपदी और सुभद्रा भाइयों से मिलकर द्वारिकाधीश के रानियों के सत्कार में लग गयी। कोई अनुभव नहीं करता था कि वह अतिथि है अथवा आतिथेय है। इन्द्रप्रस्थ तथा द्वारिका के लोग जैसे एक परिवार के हों और सदा साथ ही रहते हों। अवश्य ही अन्त:पुर की व्यवस्था का संचालन महारानी द्रौपदी करती थीं और उन्होंने अपने सौहार्द से, स्नेह से श्रीकृष्ण की महारानियों को सखी बना लिया था। उनकी प्रबन्ध-पटुता का, विनम्रता का, कोई भी उदाहरण देना संभव नहीं है। वे हंसकर कह देती थीं- ‘तुम सबको भाभी तो मेरी छोटी बहिन सुभद्रा कहेगी। मैं तो तुम्हारे द्वारिकाधीश की सखी हूँ। अत: तुमसे सेवा लेने वाली हूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस का विस्तृत वर्णन ‘श्रीद्वारिकाधीश’ में आ चुका है।
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज