पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
15. हस्तिनापुर-कर्षण
भीष्म भी हंस पड़े। उनके हंसने पर बड़ा व्यंग था। उन्होंने कहा- ‘कुरुराज ने साहस किया है तो प्रतीक्षा करनी चाहिये। अन्तत: जिनका बच्चा बन्दी है, वे भी तो कुछ करेंगे।’ बहुत थोड़े दिन बीते। अचानक एक दिन उद्धव जी कुरुराज की सभा में पहुँचे। उन्होंने धृतराष्ट्र को प्रणाम किया; द्रोणाचार्य; कृपाचार्य, अश्वत्थामा को प्रणाम किया। दुर्योधन से बोले- ‘आपके गुरु भगवान् बलराम हस्तिनापुर के बाहर पधारे हैं और आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’ ‘भगवान् बलराम पधारे हैं।’ दुर्योधन बड़े आदर से उठा। अन्तत: बलराम जी उसके गदा-शिक्षा के गुरु थे। उसने उत्साह पूर्वक सबसे प्रार्थना की- ‘उनका उचित स्वागत किया जाना चाहिए।’ भीष्म, द्रोण, सब कुरुवंशी क्षत्रिय ब्राह्मण लिये गये, स्वागत की सामग्री ली गयी। भेरी बजते हुए, स्वस्ति पाठ करते हुए नगर के बाहर जहाँ भगवान् बलराम रुके हुए थे, कौरवों का यह समुदाय गया। बलराम जी ने भीष्म आदि बड़ों का प्रणाम किया, उनकी पूजा की। यह पूजा-सत्कार समाप्त हुआ। ‘क्षितीशेश्वर महाराजाधिराज उग्रसेन का यह प्रतिनिधि तुम सब कौरवों को महाराजाधिराज की आज्ञा सुनाता है।’ बलरामजी ने पूरे ओज के साथ इस तरह डांटकर जैसे कोई सम्राट तुच्छ सेवकों को आज्ञा दे रहा हो- ऐसे स्वर में कहा- ‘महाराजाधिराज उग्रसेन नहीं चाहते कि कुरुकुल और यदुकुल में कोई संघर्ष उत्पन्न हो। तुम लोगों ने एक क्षत्रिय धर्म पर स्थित बालक को अधर्मपूर्वक बन्दी बनाया है। फिर भी दोनों कुलों में मेल रखने की इच्छा से हम सबको क्षमा करेंगे। तुरन्त उस बालक को छोड़ दो और उसकी वधू को मेरे साथ विदा करो।’ वातावरण एकदम उलट गया। दुर्योधन आग बबूला हो गया। जोर से चिल्लाया- ‘ये यदुवंशी’ जो कल तक हमारे सामन्त थे, जिन्हें हमने कृपा कर छोटा-सा भूखण्ड दिया था, जो हमारी उपेक्षा के कारण क्षत्र और चंवर लगा रहे हैं वे आज इतने निर्लज्ज हो गये कि हमी को आज्ञा देते हैं। ये पैर का जूता अब सिर पर चढ़ने की हिम्मत करता है। आज से यदु वंशियों को क्षत्र लगाने का, चंवर रखने का और सिंहासन का अधिकार नहीं दिया जायगा। हम इनके अहंकार को तोड़ कर धर देंगे। ये उद्दण्ड अब हमको आज्ञा देते हैं।’ इतना कहकर दुर्योधन मुड़ पड़ा।नगर की ओर क्रोध के साथ चल पड़ा। उसने पलटकर भी नहीं देखा। सब उसके पीछे चल पड़े। केवल भीष्म ने दोनों हाथ जोड़कर बलरामजी को सिर झुकाया। बलरामजी इस समय कुछ भी देखने-सुनने के पक्ष में नहीं थे। उद्धव स्तब्ध रह गये। सात्यकि ने धनुष चढ़ा लिया था, किन्तु बलराम ने केवल आँख का संकेत किया और सात्यकि धनुष उतार कर बैठ गये। दोनों ने समझ लिया, आज कोई अकल्पित होकर रहेगा। |
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