पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
12. खाण्डवदाह
‘मूर्ख ! अमोघ वज्र को सदा के लिए व्यर्थ कर देना चाहता है ?’ देवगुरु बृहस्पति आ गये महर्षि कश्यप के साथ और उन्होंने इन्द्र को डांटा- ‘विनतानन्दन गरुड़ ने वज्र के सम्मान की रक्षा के लिए स्वेच्छा से पंख अपना गिरा दिया था, यह भूल गया ? अब गरुड़ासन प्रयोग करके वज्र को नष्ट करने चला है?’ महर्षि कश्यप ने कहा- इन्द्र ! तुम जानते हो कि दानवेन्द्र मय समस्त सुरों के लिए दुर्जय हैं यदि श्रीकृष्ण ने नेत्र से भी संकेत कर दिया तो तुम कितने क्षण वज्र लेकर उनके सम्मुख समर में टिकोगे? हरि और हर दोनों को शत्रु बनाकर तुम दानवों, असुरों का ही हित करने जा रहे हो अथवा कोई तीसरा शरणद तुम्हें कहीं दीखता है? तुम्हारा मित्र तक्षक खाण्डव वन में नहीं है। वह इस समय कुरुक्षेत्र गया है। यह यह युद्ध का व्यर्थ प्रयत्न बन्द करो।’ इन्द्र को अपने मित्र तक्षक के ही प्राणों की चिन्ता थी। वे तक्षक को बचाने के लिए आतुर थे। तक्षक वन में नहीं है, यह सुनकर मित्र की ओर से निश्चिंत होते ही उनको अपनी अज्ञता का बोध हुआ। वे अपने ही अंश से उत्पन्न अर्जुन पर वज्र का प्रयोग करने जा रहे थे ? देवराज ने एरावत को लौटाया। वायु और मेघ भी विदा हो गये। दूसरे देवता तो पहिले ही पराजित होकर भाग चुके थे। आकाश स्वच्छ नहीं हुआ; किन्तु वह केवल धूमाच्छन्न रह गया। सम्पूर्ण खाण्डव वन धधक रहा था। अग्नि देव ने भली प्रकार उसे भस्म किया। लता, तरु, तृणादि का नाम नहीं रहा। सरोवरों के जल तक सूख गये। वह वन पन्द्रह–दिन रात बराबर जलता रहा। वहाँ कोयला भी नहीं बचा। नीचे बची केवल भस्म- श्वेत भस्म मात्र। उस हिंसक प्राणियों से भरे, आस-पास के प्रदेश के लिए आतंक स्वरूप, नाग, सर्प, राक्षसादि के आवास भूत वन में उन चर-अचर सब प्राणियों को चाटकर, स्वस्थ होकर अग्नि देव, श्रीकृष्ण-अर्जुन का अभिनन्दन करके अदृश्य हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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