पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
12. खाण्डवदाह
‘प्राचीन समय में बहुत बलवान्, समृद्ध, श्रद्धालु चक्रवर्ती राजा श्वतेकि हुए हैं ! उसने बड़े-बड़े यज्ञों का क्रम लगा दिया। ऋत्विक ब्राह्मण थक जाते, यज्ञ कराना अस्वीकार कर देते; किन्तु राजा दूसरे ऋत्विक प्राप्त कर लेता। उसके यज्ञों में बारह वर्ष तक हाथी की सूंड के समान घृत की मोटी धारा अखण्ड आहुति मुझे स्वीकार करनी पड़ी और उसी से यह अजीर्णज रोग हो गया।’[1] अग्नि देव ने बतलाया। ‘अश्विनीकुमार मेरा उपचार करने में असमर्थ रहे।’ अग्नि ने कहा- ‘तब मैं सृष्टि कर्ता की शरण में गया। उन्होंने बतलाया कि यदि मैं खाण्डव वन को अपनी ज्वाला-जिह्वाओं से चाट लूँ तो मेरा रोग मिट जायेगा।’ अजीर्ण में चूर्ण, अवलेहादि वैद्य देते ही हैं और अग्नि देव के लिए एक पूरा वन केवल अवलेह था। घृत बहुत खाकर रोग हुआ तो वृक्षलतादि के साथ वन में स्थित प्राणियों का मेद-मांसादि उस रोग की औषधि हो जायगा, इस सृष्टि के निर्माता ही समझ सकते थे। असाधारण रोगी, रोग का असाधारण कारण, अत: असाधारण औषधि भी उसकी। ‘मैंने सात बार प्रयत्न किया; किन्तु देवराज इन्द्र वर्षा करके मुझे विफल कर देते हैं।’ अग्नि देव खिन्न स्वर में कह रहे थे- ‘मेरा कार्य महर्षि अंगिरा वहन कर रहे हैं। देवताओं को यज्ञ भाग वे पहुँचा देते हैं। अत: देवराज को मेरी अपेक्षा नहीं रही है। इस खाण्डव वन में उनका मित्र तक्षक सपरिवार रहता है। अत: उसकी रक्षा इन्द्र को अधिक महत्व की जान पड़ती है। अब भगवान् ब्रह्मा के आदेश से मैं आप दोनों की शरण आया हूँ।’ ‘देवराज की मुझे चिन्ता नहीं है।’ अर्जुन ने आश्वासन दिया- ‘उनके मेघों को मैं देख लूँगा और इन मधुसूदन ने तो शैशव में ही शक्र के समस्त प्रयत्न विफल कर दिये थे; किन्तु इस समय मेरे पास दिव्यास्त्रों को सम्हालने योग्य धनुष नहीं है। हम दोनों यहाँ बहुत अधिक बाण लेकर नहीं आये और बाण आ भी जायें तो उन्हें ढोने योग्य रथ नहीं है। आप इनकी व्यवस्था कर दें। वन में रहने वाले नागों, दानवों को मारने योग्य अस्त्र यहाँ ये जनार्दन भी नहीं ले आये हैं। हम तो यहाँ आमोद के लिये आ गये।’ अग्निदेव ने लोकपाल वरुण का स्मरण किया। उन जलाधिप के आते ही कहा- ‘आपको राजा सोम ने जो अक्षय त्रोण, गाण्डीव धनुष और वानर ध्वज रथ दिया है, वह तथा चक्र भी मुझे दे दीजिये।’ वरुण को कोई आपत्ति नहीं थी। वे भी समझते थे कि देवराज के द्वारा अग्नि के साथ अन्याय हो रहा है। उन्होंने वे रथादि वहाँ उपस्थित कर दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह महाभारत का वर्णन है। ग्रन्थान्तरों में महाराज मरुत के यज्ञ में अग्नि अजीर्ण का उल्लेख है। कल्प भेद से ये वर्णन है।
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