पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
2. अपनी बात
घृणा लज्जा भयं शोको जुगुप्सा चेति पंचमम्। काम क्रोध अर्थात राग-द्वेष, भय, लज्जा अर्थात देहाभिनिवेश और इस अभिनिवेश का स्थूलरूप कुल, शील एवं जाति का गर्व, इनके साथ जुगुप्सा- दूसरों से घृणा अर्थात अपने में अहंकार, इन आठ पाशों से जो बंधा है, वह पशु है- परतन्त्रता ही पशुत्व है। लेकिन उस सर्वेश्वर की ओर देखें तो वह कहता है, उसकी वाणी श्रुति की घोषणा है- ’द्वा सुपर्णा सयुजा सखायौ।' वह जीव का सखा और उसे सखा स्वीकार कर लेने में जीव का पशुत्व- सब पाश समाप्त हो जाते हैं, अत: उस नर सखा का यह स्मरण अपना कार्य नहीं करेगा, अपने संबंध में ही मैं ऐसा क्यों मानूँ। कोई भी भला क्यों माने। वृन्दावन |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कुलार्णवतन्त्र 13-69-70
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