पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
10. इन्द्रप्रस्थ आगमन
वैभव की इच्छा या स्वप्न वहाँ किसी के मन में नहीं था; किन्तु श्रीकृष्ण को स्वयं यह सहन नहीं था कि जिनकी वे चरण-वन्दना करते हैं, वे युधिष्ठिर भाइयों के साथ ऐसे साधारण भवन में, साधारण ग्राम में अपनी महारानी यज्ञकुण्ड समुद्भवा द्रुपद राज तनया के साथ रहें। वह साध्वी तो पिता के नगर में सबके सम्मुख ही निर्धन, भिक्षाजीवी अर्जुन के साथ कुम्हार के घर अकेली आ गयी थी और उस राजकन्या को नववधू होने के प्रथम दिन भिक्षान्न पकाकर आधा भाग भीमसेन को देने तथा शेष में छ: भाग करने को सास ने कहा था और उसने सादर वे आज्ञा स्वीकार कर ली थी। उसे वैभव का प्रलोभन क्या प्रलुब्ध करता; किन्तु जिन त्रिभुवनेश्वर ने उसे मिलते ही ‘सखि’ कहा था, उसकी विपन्नता उन्हें सह्य नहीं थी। श्रीकृष्णचन्द्र ने उस दिन विश्राम किया ही नहीं, स्वागत-सत्कार, स्नान-भोजन से निवृत होकर वे सात्यकि को लेकर निकल गये और पूरे ग्राम को, यमुना तट को तथा आस-पास के प्रदेश को देखते-घूमते रहे। अर्जुन को ही उन्होंने साथ लिया था।
अभी तक अर्जुन ने और उनके दूसरे भाइयों ने भी इस ग्राम तथा आस-पास के प्रदेश को इस प्रकार घूमकर देखा नहीं था। वहाँ देखने योग्य कुछ था भी नहीं। ग्राम लोग सीधे, सरल थे और उनकी प्रीति पाण्डवों ने अपने उत्तम व्यवहार से प्राप्त कर ली थी। उस ग्राम के समीप से ही खाण्डव-वन प्रारम्भ हो जाता था, जो कुछ ही दूर जाने पर दुर्गम हो गया था। ग्राम के चारोंओर परिखा थी; किन्तु वह वन पशुओं से रक्षा मात्र के लिए थी। वैसे दूर तक की भूमि अच्छी थी और यमुना का तट तो था ही। श्रीकृष्णचन्द्र को हस्तिनापुर के गंगा तट से यह स्थान अधिक प्रिय लगा। रात्रि-विश्राम का समय आया तो दूसरे सब सो गये; किन्तु उन त्रिलोकनाथ के नेत्रों में निद्रा नहीं थी। उन्होंने विश्वकर्मा का स्मरण किया और आदेश दिया- ‘यहाँ देश के सम्राट के उपयुक्त राजसदन तथा नगर का आप आज ही निर्माण कर दें।’ वह इन्द्रप्रस्थ अब नहीं है। अब तो उसके खण्डहरों पर दिल्ली नगर बसा है; किन्तु इस नगर का पुराना नाम इन्द्रप्रस्थ है, यह हम आप जानते हैं। वह इन्द्रप्रस्थ श्रीकृष्ण के संकल्प से बना-बसा था। विश्वकर्मा उस समय आदेश स्वीकार करके नगर-निर्माण में लग गये। उन्हें केवल राजसदन या नगर ही नहीं बनाना था, उसके भवनों को उद्यानों को अश्वशाला, गोशाला, गजशाला को उपयुक्त उपकरणों तथा पशुओं से भी पूर्ण करना था। दूसरा सूर्योदय उस स्थान में दूसरा दृश्य लेकर आया। वहाँ के निवासी सम्पन्नतम नागरिक हो चुके थे। दूसरे स्थानों से सहस्रों परिवार जा चुके थे और देवशिल्पी ने सबका चित्त ऐसा कर दिया था कि किसी को कोई आश्चर्य नहीं था। सब जैसे सदा से वहीं इसी प्रकार रहते हों, ऐसे हो गये थे और पाण्डव तो श्रीकृष्ण के इस प्रभाव को समझकर भाव विभोर थे ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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