पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
93. उपसंहार
अचानक धृतराष्ट्र ने राजा युधिष्ठिर से धन लिया और भीष्मादि सबका श्राद्ध किया। फिर वल्कल वस्त्र धारण करके कार्तिक पूर्णिमा को तपस्या का निश्चय करके भवन से निकल पड़े। उन्होंने धन देकर भृत्यों का भली-भाँति सत्कार कर दिया था और ब्राह्मणों को सत्कृत कर दिया था। पाण्डवों के दु:ख का पार नहीं था; क्योंकि देवी गान्धारी तो जा रही थीं, उनकी माता कुन्ती तथा विदुरजी भी तप करने का निश्चय करके उनके साथ ही जा रहे थे। अन्तिम वय में वन में जाकर तप करने की आज्ञा शास्त्र ने दी है। श्रीमद्भागवत का सन्देश है- 'गतस्वार्थमिमं देहं विरक्तों मुक्तबन्धन:। स्वजनों से घिरे हुए, शरीर और सम्बंधियों की चिंता लेकरा मरना श्रेयस्कर नहीं है। जब शरीरिक शक्ति शिथिल पड़ने लगती है, तृष्णा और मोह प्रबल होने का भय होता है। अत: जब शरीर समर्थ नहीं रहा, वह सांसारिक-पारमार्थिक किसी काम के योग्य नहीं रहा, न भोग ही भोंगने योग्य रहा, न योग की ही साधना सम्भव रही, तब इस क्षीण सत्व रोगीजर्जर देह का ममत्व भी क्या। इससे विरक्त होकर अहंता-ममता के बन्धन तोड़कर जो इसे ऐसे छोड़ सके कि किसी को पता न लगे कि देह कहाँ गिर गया, वह धीर पुरुष है। अपने स्वजन, सम्बन्धी श्रेष्ठ कार्य करें, श्लाध्य पथ पर पैर रखें, यह गौरव की बात है; किन्तु मनुष्य की ममता बहुत प्रबल है। सन्मार्ग पर जाने वाले का भी शारीरिक सान्निध्य छूटने लगता है तो बड़ा दु:ख होता है। बहुत वेदना होती है। सबसे आगे थीं देवी कुन्ती। उनके कन्धे पर गान्धारी ने हाथ रखा था; क्योंकि वे तो नेत्रों पर पट्टी बाँधे थीं। गान्धारी के कन्धे पर धृतराष्ट्र ने हाथ रखा था। पाण्डव, विदुर, कृपाचार्य, महर्षि धौम्य, युयुत्सु तथा बहुत से ब्राह्मण साथ थे। सब रो रहे थे। केवल वन जाने वाले चारों शान्त थे। द्रौपदी, पुत्र के साथ उत्तरा तथा अन्य कुरुकुल की स्त्रियों ने भी रोते-रोते बहुत दूर तक- नगर से बाहर तक अनुगमन किया। देवी कुन्ती ने समझाकर द्रौपदी आदि वधुओं को लौटाया। अपने पुत्रों को लौटाने में उनको बहुत कठिनाई हुई। किसी प्रकार वे उन रोते-बिलखते पुत्रों को लौटा सकीं। सब पुत्र उनके धर्मात्मा थे, विद्वान थे। सब माता की यह बात समझते थे कि- 'पिता के साथ वे केवल इसलिए सती नहीं हो सकी; क्योंकि सब पुत्र शिशु थे। फिर पुत्रों पर संकट ही आते रहे। अब सब संकट श्रीकृष्ण की कृपा से कट गये और पुत्र समर्थ हो गये तो उन्हें तप करके परलोक में पति की सेवा में उपस्थित होना चाहिए।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 1.13.25
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