पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
90. शूरभक्त सुधन्वा
'मेरे स्वामी ! यह तो धन्य-धन्य हो गया !' महाराज हंसध्वज ने समीप आकर कहा- 'आपके सम्मुख शरीर छोड़ा इसने और आपके श्रीकरों में इसका सिर है, ऐसे सद्गति किसे मिलती है। इसने तो मेरे पूरे कुल को पवित्र कर दिया। अब आप संकोच त्यागकर इस मृत्तिका मुण्ड को फेंक दें और नगर में पधारें। हम सबको आपके चरणार्चन का सौभाग्य प्राप्त होना चाहिए !' पुत्र का कटा सिर जैसे कुछ अर्थ ही नहीं रखता हो, इस उत्साह से महाराज हंसध्वज कह रहे थे- 'मैं अर्जुन से प्रार्थना करता हूँ कि वे हमारी धृष्टता क्षमा करें ! हम सम्राट युधिष्ठिर के अनुचर हैं। सेना सहित नगर में चलकर सम्राट के प्रतिनिधि हमारा आतिथ्य स्वीकार करें। अश्व ही नहीं, यह राज्य और इसकी सब सम्पत्ति उन्हीं की है। हम केवल उनकी सेवा करके सनाथ होना चाहते हैं।' अर्जुन के मुख से एक शब्द नहीं निकला। सुधन्वा का शव यहाँ पड़ा रहे और वे आतिथ्य स्वीकार करने नगर में जायँ, यह कैसे उचित हो सकता था। महाराज हसंध्वज ने तो पुत्र के शरीर की ओर देखा भी नहीं। 'महाराज ! हम सब आपका आतिथ्य स्वीकार करने को उत्सुक हैं।' श्रीकृष्ण ने ही कहा- 'किन्तु यह मेरे अत्यन्त प्रियजन का मस्तक है। मैं अनुरोध करता हूँ कि आप पहिले इसकी उत्तर क्रिया कर देंगे। आप संकोच का त्याग करके इस मस्तक को विसर्जित करें और राजसदन पधारें।' 'इसे मैं अपने हाथों अग्नि देव को अर्पित किेये बिना दूसरा कुछ कर नहीं सकूँगा महाराज !' श्रीकृष्ण स्वर भरा हुआ था- 'यह मेरा भी भाई ही है। इसकी उत्तर क्रिया की आप मुझे दया करके अनुमति दें।' अर्जुन को इतनी ग्लानि, इतनी लज्जा जीवन में कभी नहीं हुई थी। महाभारत के युद्ध में किसी भी प्रबल शत्रु का संहार होने पर श्रीकृष्ण ने उन्हें हृदय से लगाकर उनकी प्रशंसा की थी; किन्तु आज सुधन्वा का सिर करों में लेकर वे कमल-लोचन रो रहे थे। उनके सम्मुख जाने का साहस नहीं था अर्जुन में। महाराज हंसध्वज जैसा ममता रहित परम भागवत भी पहिली बार उन्होंने देखा था। हसंध्वज ने पुत्रों को आदेश दे दिया। सुधन्वा का शरीर सरित तट पर पहुँचाया गया। कवच, आभूषण आदि उतारकर उसे स्नान कराया गया। श्रीकृष्णचन्द्र उसका मस्तक अपने करों में ही उठाये पैदल चलते आये। वहाँ तक तो अर्जुन तथा उनके सब सैनिकों को भी अनुगमन ही करना था। चिता में शरीर के साथ सिर को सावधानी से सटाकर श्रीकृष्ण ने रखा। विश्व में सम्पूर्ण श्रद्धा और सैनिक सम्मान के साथ अनेक शूरों की अन्तिम क्रिया सम्पन्न हुई है; किन्तु सुधन्वा की समता न हुई और न हो सकती। जब वह चिता बुझ गयी, उसे सबने जलाज्जलि दी। स्नान करके और तब सब वहाँ से राजसदन एक साथ आये। श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन की पूरी सेना का वहाँ बहुत आदर पूर्वक सत्कार हुआ। वहाँ से श्रीकृष्ण हस्तिनापुर लौटे और अर्जुन अश्व के संग गये। अब कोई अश्व को पकड़ने वाला नहीं था। अश्व सर्वत्र घूमकर लौटा। धर्मराज का अश्वमेघ यज्ञ सविधि समाप्त हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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