पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
10. इन्द्रप्रस्थ आगमन
वारणावत के लाक्षागृह के अनुभव के पश्चात् धृतराष्ट्र तथा उनके पुत्रों से न नवीन भवन बनवाने को कहा जा सकता था, न उनके बनवाये भवन स्वीकार किये ही जा सकते थे। ऐसा कोई प्रस्ताव करने का साहस भी इस समय धृतराष्ट्र नहीं कर सकते थे। अपनों का अपने जनों का श्रीकृष्ण क्षण-क्षण ध्यान रखते हैं। वे भक्त वत्सल भक्त का ध्यान न रखें तो रखेगा कौन। पाण्डव खाण्डवप्रस्थ आये और उनसे मिलने द्वारिका से श्रीद्वारिकाधीश सात्यकि को साथ लेकर चल पड़े। नवीन स्थान, साधारण राज्य कर्मचारी के उपयुक्त भवन और नवीन राज्य व्यवस्था करनी थी युधिष्ठिर को। उन्हें राज्य का पर्वत-जंगलीय भाग, निर्धन- पिछड़ी प्रजा प्राप्त हुई थी। श्रीकृष्णचन्द्र को यह सब देखना था- सम्हालना था। वे जनार्दन आये तो मानो शरीर में प्राण आ गया, इस प्रकार पाण्डव प्रसन्न हुए। अपनी राजधानी से बाहर तक जाकर उन्होंने स्वागत किया। श्रीकृष्णचन्द्र ने युधिष्ठिर तथा भीमसेन की चरण-वन्दना की। अर्जुन को अंकमाल दी। नकुल-सहदेव ने उन्हें प्रणाम किया। सात्यकि ने सबका यथावत अभिवादन किया। भवन में आकर देवी कुन्ती के चरणों में वासुदेव ने मस्तक रखा तो कुन्ती के नेत्र अश्रु झरने लगे। अपने भ्रातृ पुत्र को उन्होंने अंक में खींच लिया। ‘बुआ सब कुशल है ?’ जनार्दन ने उस स्नेह के उमड़ते प्रवाह के कुछ शान्त होने पर पूछा। देवी पृथा का स्वर गदगद् हो गया– ‘तुम सर्वेश सर्वसमर्थ भक्त वत्सल ने जब मेरा और मेरे पुत्रों का स्मरण करके मेरे भाई अक्रूर को यहाँ भेजा, हमारी कुशल तो तभी सुरक्षित हो गयी। जिनका तुम्हें ध्यान आ जाय, उनका मंगल भी संदिग्ध रहा करता है।’ द्रौपदी जी नव वधू थीं। उन्होंने लज्जापूर्वक धीरे से आकर वन्दना की तो मधुसूदन हंसकर बोले- सखी ! तुम मुझसे भी संकोच करोगी ?’ द्रौपदी को लगा कि उसके मन-प्राण सब अमृत सिञ्चित हो गये। उसने बहुत धीरे से कह दिया- ‘स्मरण रखना कि तुमने मुझे सखी कहा है।’ ‘तुमको साम्राज्ञी कह सकूँगा तब ये सम्बोधन सार्थक होगा !’ श्रीकृष्णचन्द्र ने इधर-उधर उस छोटे से जीर्ण भवन को देखा और उनके कमल लोचन भर आये। ‘वह सम्बोधन तुम्हारे इस ‘सखि’ से महान् नहीं है।’ द्रौपदी ने अंचल से नेत्र पोंछे, इस प्रकार के कोई लक्षित न कर सके; किन्तु स्वर आद्र हो गया था और उसे छिपाया नहीं जा सकता था- ‘मुझे वैभव नहीं चाहिए। यह स्वत्व जो तुमने दिया है स्वयं, उसे स्थिर रखना !’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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