पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
90. शूरभक्त सुधन्वा
चम्पकपुरी-नरेश राजा हंसध्वज परम धर्मिक थे। भगवद्भक्त थे और उनके मन में श्रीकृष्ण-दर्शन की उत्कट अभिलाषा थी; किन्तु उनका निश्चय था 'राजा जब सम्पूर्ण प्रजा से कर लेता है, सबके पाप-पुण्य में भाग पाता है तो उसको अकेले अपने कल्याण की चिन्ता क्यों करनी चाहिए। समस्त प्रजा को जो प्राप्त नहीं हो सकता, उसको पाने की इच्छा मैं कैसे कर सकता हूँ। भक्तवत्सल, अनन्त करुणावरुणालय प्रभु जब पृथ्वी पर पधारे हैं परम धाम से तो यदि इस अपने अत्यन्त उपेक्षणीय क्षुद्र दासपर दया करना चाहेंगे तो यहीं आवेंगे। प्रजा के साथ ही मैं उनके भुवन-पावन पदों के दर्शन करूँगा।' 'राजा कालस्य कारणम्।' शासक यदि सद्धर्म का पालक है तो प्रजा स्वयं धर्माचरण में लगेगी। जो नरेश प्राज के बिना अपने आराध्य श्रीहरि का भी दर्शन नहीं करना चाहते, उनकी इच्छा के पीछे प्रजा का बच्चा-बच्चा प्राण देने को सदा समुत्सुक रहेगा ही। फलत: पूरे राज्य में सब आबाल वृद्ध, स्त्री-पुरुष सदाचारी, धर्मात्मा और भगवद्भक्त थे। सब पुरुष एक पत्नीव्रता पालन करते थे। सब स्त्रियाँ परमसती थीं। ब्राह्मण वेदज्ञ, तपस्वी, सन्तोषी, याज्ञिक थे। क्षत्रिय प्रचण्ड धनुर्धर शूर थे। वैश्य विनयी, परसेवी उदार, ईमानदारी व्यापारी थे और शूद्र सेवा को अपना सौभाग्य मानते थे। पर्वतीय राज्य होने से सब श्रमशील थे। सुन्दर थे और धर्माचरण ने सबको सुखी, सम्पन्न, सन्तुष्ट बनाया था। महाराज हंसध्वज ने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिर का अश्वमेधीय अश्व इस बार उनकी राज्य-सीमा में आ गया है तो उन्हें लगा कि उनके अन्तर्यामी आराध्य ने उनके हृदय की पुकार सुन ली है। यज्ञीय अश्व तो स्वयं यज्ञपुरुष का स्वरूप होता है। वे यज्ञपुरुष भगवान नारायण इस रूप में अनुकम्पा करने ही पधारे हैं। 'अश्व को पकड़ लो और बहुत आदर पूवर्क लाकर सावधानी से उसकी सेवा करो !' महाराज हंसध्वज ने अपने पुत्रों को आज्ञा दी- 'धर्मराज युधिष्ठिर अखिलेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र के सहारे ही यज्ञ करते हैं। अत: यदि दूसरे अश्व को हम से लेने में असमर्थ हो जायँ तो भगवान वासुदेव को स्वयं आना पड़ेगा। वे जनार्दन पधारें, इस प्रयत्न में उनके पुत्र, परिजन अथवा सखा पाण्डवों के बाण से हममें सबको ही समर-शय्या प्राप्त हो जाय तो भी सद्गति हमारा स्वत्व है और कहीं हम सफल हो गये तब तो उन पुरुषोत्तम के पादपद्मों से यह भूमि पवित्र हो ही जायगी। हमें उनकी अर्चा का अवसर मिलेगा।' स्मृतिकार, प्रसिद्ध विद्वान, वेदवेत्ता, कर्म के कुशल रहस्य ज्ञाता, ऋषियों से सम्मानित राजपुरोहित मुनिवर्य शंख और लिखित दोनों भाइयों ने महाराज हंसध्वज की प्रशंसा की। दोनो ने राजा की योजना को अनुमति दे दी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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