पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
88. परीक्षित को पुनर्जीवन
श्रीकृष्ण ने उस शिशु के शरीर पर अपना कर-स्पर्श करके कहा- 'यदि मुझे धर्म और ब्राह्मण विशेष प्रिय हों, यदि मैंने धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्रों को सदा समान समझा हो, यदि मुझमें शाश्वत सत्य प्रतिष्ठित हो तो यह अभिमन्यु का पुत्र जीवन-प्राप्त करें ! यदि मैंने केशी और कंस को भी धर्म-पूर्वक मारा हो तो यह उत्तरा का पुत्र जीवित हो जाय। यदि मेरे मन में शत्रुओं के प्रति भी स्नेह ही रहा हो तो यह शिशु जीवित हो जाय !' श्रीकृष्ण को इतनी शपथ करने की आवश्यकता नहीं थी। शिशु में तो उनके कर-स्पर्श के साथ जीवन लौट आया था। उसके हृदय ने धड़कना प्रारम्भ कर दिया था। श्रीकृष्ण के शपथ समाप्त करने के साथ तो शिशु ने नेत्र खोल दिये और अपलक उन्हीं की ओर देखने लगा था। उसने अपने सुकुमार दोनों नन्हें कर उठा लिये थे। 'धन्य हो ! केशव तुम धन्य हो ! आकाशवाणी गूँज उठी। सूतिकागार और शीध्र ही राजसदन तथा पूरा नगर मंगल वाद्यों गूँजने लगा। श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों को बुलाने को आदेश दिया। पिता अभिमन्यु परलोकवासी हो चुके थे और पितामह अर्जुन नगर में नहीं थें, अत: श्रीकृष्ण ने ही इस शिशु के जात कर्म-संस्कार को सम्पन्न किया। उत्तरा ने पुत्र को अंक में उठाया। सुभद्रा और द्रौपदी ने उसे सहारा दिया। उसने श्रीकृष्ण के चरणो में सद्योजीवन-प्राप्त शिशु के साथ मस्तक रखा। ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन किया। श्रीकृष्ण ने बहुत अधिक रत्न उस बालको को भेंट किये। 'यह अभिमन्यु का पुत्र कुरुकुल के परिक्षीण हो जाने पर उत्पन्न हुआ है।' श्रीकृष्ण ने बालक का नामकरण किया- 'अत: इसका नाम परीक्षित होगा।' सुभ्रदा ने हर्षातिरेक में कहा- 'भैया ! इसका नाम तो तुमने ठीक रखा; किन्तु नाम का कारण इसकी पितामही मैं ठीक बतलाऊँगी- मेरे भैया पुरुषोत्तम ने इस परिक्षीण जीवन पुरु-वंश के प्रदीप को पुन: रक्षित किया है, ये ही इसके परिरक्षक हैं, अत: इसका नाम परीक्षित हैं।' उत्तरा बोल नहीं सकती थी; किन्तु वह मन में हँसती कहती थी- 'पिता नहीं हैं तो नाम रखने का स्वत्व मेरा है। गर्भ में ब्रह्मास्त्र से यह इन परम पुरुष के द्वारा परिरक्षण न पाता रहता तो इतने दिन रहता वहाँ। अत: इसका नाम परीक्षित ही उचित हैं।' महर्षि धौम्य पाण्डवों के कुल-पुरोहित थे; किन्तु वे पाण्डवों के साथ गये थे। लौटने पर जब नामकरण संस्कार का समय शिशु के सौ दिन का होने पर आया तो उसे अंक में लेकर देखा और बोले- 'यह तो जो भी सामने आता है, उसी को अत्यन्त ध्यान से देखकर उसकी पहिचान-परीक्षा करता है कि गर्भ में मैंने जो अपना रक्षक-पुरुष देखा था, यह वही है अथवा नहीं, अत: इसका नाम परीक्षित ही उचित है।' इस प्रकार कारण सबने भिन्न-भिन्न कल्पित किये: किन्तु श्रीकृष्णचन्द्र का किया नामकरण भला बदलने की बात कोई कैसे सोचता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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