पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
85. अपने नामों की व्याख्या
अर्जुन ! तुम जानते ही हो कि मैंने पुत्र-प्राप्ति के लिए रुद्र की आराधना की थी क्योंकि उन सदाशिव के अतिरिक्त मुझे वरदान देने में दूसरा कोई समर्थ नहीं है। ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्रादि देवता और ऋषि भी मुझ विष्णु की– नारायण की ही पूजा करते हैं। सदा सबके लिए सेव्य मैं ही हूँ। मुझ शरणद को छोड़कर मेरे भक्त किसी अन्य देवता का भजन नहीं करते। ब्रह्मा, शिव तथा दूसरे देवताओं के उपासक भी अंत में मुझे ही प्राप्त करते हैं। सबका एकमात्र आश्रय सनातन परमतत्त्व मैं नारायण ही हूँ। 2. वासुदेव- जो आच्छादित करे अथवा निवासभूत हो, उसे वासु कहते हैं। मैं ही सूर्यरूप से अपनी किरणों के द्वारा सम्पूर्ण जगत को आच्छादित करता हूँ तथा मुझमें ही सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं, इसलिये मेरा नाम वासुदेव है। (वसु कहते हैं अन्त:करण को। उसमें जो दिव्यप्रकाश स्वरूप है, वह अन्तर्मायी वासुदेव है, यह व्याख्या अधिक प्रचलित है।) 3. विष्णु- मैं सम्पूर्ण प्राणियों की गति और उत्पत्ति का स्थान हूँ। मैंने पृथ्वी, आकाश को सबको व्याप्त कर रखा है। मैं ही परम प्रकाशक हूँ। समस्त प्राणी अन्त में मुझे ही पाना चाहते हैं तथा मैं सबको आक्रान्त करके स्थित हूँ। इसलिये मुझे विष्णु कहा जाता है। 4. दामोदर- दम-इन्द्रिय-दमन के द्वारा लोग मुझे पाना चाहते हैं, अत: मेरा नाम दामोदर है। (मैया यशोदा ने उदन-पेट में दाम-रस्सी बाँधकर उखलसे बाँध दिया था, इसलिए– दामोदर कहलाते हैं, यह व्याख्या ब्रज की है और भक्तों की अपनी व्याख्या भी ऐसी ही है– उदर-हृदय में प्रेम की रस्सी से जो बँध जाया करते हैं, वे दामोदर हैं।) 5. पृश्निगर्भ- अन्न, वेद, जल और अमृत का नाम है पृश्नि। ये सर्वदा मेरे गर्भ में रहते हैं, अत: मेरा नाम पृश्निगर्भ है। (देवी पृश्नि के गर्भ से अवतरित होने के कारण पृश्निगर्भ नाम सामयिक है; किन्तु अनन्त नित्य नाम सामयिक नहीं हो सकते है। अत: श्रीकृष्ण उनकी नित्य-व्याख्या बतला रहे हैं।) 6. केशव- सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि की किरणें मेरे केश में हैं। उस केश से युक्त होने के कारण मुनिगण मुझे केशव कहते हैं। (क: - प्रजापति ब्रह्मा, व-विष्णु, ईश-शिव, इन तीनों का जो स्वरूप है और इनका भी जो प्रशासन-कर्ता है- वह केशव। यह वैष्णवों की व्याख्या है।) 7. हृषीकेश- सूर्य और चन्द्र मेरे नेत्र हैं। ये दोनों जगत को ताप तथा शीतलता देकर हर्षित करने के कारण ‘हृषी’ कहे जाते हैं। ये मेरे केश हैं, अत: मैं हृषीकेश कहलाता हूँ। (हृषीक-इन्द्रियाँ, इनका ईश-स्वामी हृषीकेश-यह सीधा अर्थ मन तथा जीव का भी बोधक होने से भम्र पैदा करने वाला हो सकता है।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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