पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
84. भीष्म-स्तुति
अत्यन्त तीक्ष्ण शराघात से कवच कट गया था। सम्पूर्ण श्रीविग्रह क्षतों से भर गया था। मुझ आततायी को ऐसी अवस्था में मार देने को आवेश में भरे दौड़े आते भगवान मुकुन्द मेरी गति हैं। विजय के रथ के सारथि बने, करों में रथ-रश्मि तथा चाबुक लिए वह दर्शनीय शोभा देखते जो भी मारे गये, वे सब इनके स्वरूप को प्राप्त हुए, मुझ मरणासन्न की भी इन्हीं में प्रीति हो। इनकी ललित गति, मन्द मुस्कान, प्रणय-भरी दृष्टि से अत्यन्त सम्मानिता गोपियाँँ उन्मत्त के समान इनकी लीलाओं का अनुकरण करती हुई इनमें तन्मय हो गयीं। समस्त मुनिगण एवं नृप-श्रेष्ठ युधिष्ठिर के राजसूय में एकत्र थे। उनमें जिन्होंने अग्रपूजा स्वीकार की– वे साक्षात मेरे नेत्रों के सम्मुख ये परम दर्शनीय आत्मा उपस्थित है। प्रत्येक नेत्र में जैसे एक ही सूर्य नेत्राधिष्ठाता है, वैसे ही प्रत्येक देहधारी के हृदय में अधिष्ठित पृथक–पृथक देही रूप से प्रतीयमान इन एक ही पुरुषोतम में सम्यक अवस्थिति प्राप्त करके मेरी भेद-दृष्टि मोह-अविद्या नष्ट हो गयी।' यह स्तुति समाप्त करके भीष्म की वाणी शान्त हो गयी। उनका श्वास भला शरीर से बाहर कहाँ जाता। वे तो सर्वात्मा, सर्वव्यापक श्रीकृष्ण में लीन हो चुके थे। कुछ देर बाद श्रीकृष्ण वैसे ही उनके समीप स्थिर खड़े रहे। जैसे वे भी भीष्म में समाहित हो रहे हों। 'राजन ! आपके पितामह अब नहीं रहे।' देर में भीष्म के समीप से हटने पर श्रीकृष्ण ने कहा। इसका अनुमान सबने कर लिया था; क्योंकि गगन में देववाद्य बजने लगे थे और आकाश से अनवरत भीष्म के शरीर पर सुरों ने सुमनवृष्टि की थी। युधिष्ठिर अत्यन्त शोक-विह्वल हो गये। उन्हें भगवान व्यास ने आश्वासन दिया। श्रीकृष्ण ने समझाया। ऋषि-मुनिगण श्रीकृष्ण की अनुमति लेकर वहाँ से अपने आश्रमों को चले गये। ऐसा जीवन और ऐसा मरण संसार में सदा दुर्लभ रहेगा, जैसा भीष्म ने पाया। श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने करों से उनके लिए वहीं परमपुण्य सलिला ओघवती के पुलिन पर चिता सजायी और उनके शरीर को अन्तिम स्नान कराने में पाण्डवों के साथ सम्मिलित हुए। भीष्म की उत्तर क्रिया युधिष्ठिर ने सविधि सम्पन्न की; किन्तु श्रीकृष्ण ने भीष्म के निमित्त तिलांजलि दी– श्रीकृष्ण ने, जिन्होंने अपने कुल में किसी को यह सम्मान नहीं दिया। भीष्म के लिए दी गयी वह सत्य संकल्प की जलांजलि– वह तो सदा के लिए सबके श्राद्ध की विधि बन गयी। किसी का भी श्राद्ध भीष्म को अञ्जलि दिये बिना आज भी पूरा नहीं हुआ करता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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