पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
82. भक्त–भक्तमान
भक्ति देवी वास्तविक रूप में भगवान में ही रहती है। भगवान भक्ति करते हैं– सच्ची भक्ति अपने भक्तों की। भक्त में तो बड़े भाग्य से भक्ति का अवतरण कभी हो पाता है। श्रीकृष्ण भीष्म की भक्ति में विभोर बोलते रहे- 'भगवान परशुराम से निरन्तर तेईस दिन युद्ध करके भी जो अपराजित रहे, भगवती भागीरथी ने जिन्हें गर्भ में धारण किया, सृष्ट-कर्ता के साक्षात पुत्र ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से जिन्होंने सांग सम्पूर्ण वेदोपवेदों की शिक्षा प्राप्त की, महर्षि च्यवन तथा शुक्राचार्य से जिन्होंने यथावत धर्मशास्त्र तथा नीतिशास्त्र सीखा, सनतकुमार एवं मार्कण्डेय से जिनको अध्यात्म-विद्या तथा यति-धर्म का उपदेश प्राप्त हुआ, परशुराम और देवराज इन्द्र के धनुर्वेद के उन शिष्य, आजन्म ब्रह्मचारी, मृत्युजयी, धर्मात्माओं के शिरोमणि, त्रिकालज्ञ भीष्म का मन मुझ में लगा था, अत: मैं भी मन से उनके समीप पहुँच गया था।' श्रीकृष्ण को इस समय केवल भीष्म की सुधि थी। उन्होंने कहा- 'धर्मराज ! गंगातनय भीष्म के साथ धर्म का सूर्य अस्त होने जा रहा है। आप चलकर उनके चरणों में प्रणाम करें और आपको धर्म, अर्थ, नीति, अध्यात्म आदि के सम्बन्ध में जो कुछ पूछना हो, उनसे पूछ लें। मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि ऐसा अवसर फिर नहीं आवेगा। भीष्म के समान समस्त पुरुषार्थों का परमोपदेष्टा संसार में दूसरा नहीं मिलेगा।' युधिष्ठिर हाथ जोड़े हुए बोले– 'आप जो कह रहे हैं, पितामह भीष्म के सम्बन्ध में भगवान व्यास ने भी मुझसे यही कहा है। अन्य विद्वानों से भी मैंने ऐसा ही सुना है। अत: आप यदि मुझ पर अनुग्रह करना चाहते हैं तो मेरे साथ चलने की कृपा करें। आपको आगे करके ही मैं भाइयों के साथ पितामह का दर्शन करना चाहता हूँ। सूर्य के उत्तरायण होते ही वे देह-त्याग करेंगे, अत: उनको भी आपका दर्शन होना चाहिए।' वहाँ शरशय्या पर पड़े भीष्म ने अपना मन एकान्त भाव से श्रीकृष्ण में लगा रखा था और वे स्तुति कर रहे थे। उनके आस-पास वेदों के ज्ञाता, तपस्वी, श्रद्धा-संयम-सम्पन्न ऋषि-मुनियों का समुदाय एकत्र था। उन संसार के सम्मान्य प्रसिद्धतम महर्षियों के मध्य पड़े भीष्म स्पष्ट स्वर में भगवान वासुदेव की स्तुति कर रहे थे। भीष्म का स्तवन श्रीकृष्ण को उनके समीप पहुँचने को आतुर बनाये था। वे शय्या से उठ खड़े हुए– 'महाराज ! हम सब उन महात्मा का दर्शन करने चलेंगे।' युधिष्ठिर ने ही दारुक को श्रीकृष्ण का रथ सजाने का आदेश दिया। वे स्वयं दूसरे भाइयों को लेकर अपने-अपने रथों पर बैठ गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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