पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
81. युधिष्ठिर का अनुताप
राजा सगर के साठ सहस्त्र पुत्र थे। सम्पूर्ण पृथ्वी पर उनका शासन था। समुद्र-पर्यन्त पृथ्वी उन्होंने खाई के समान खुदवा डाली, इसी से वह सागर कहलाता है। अपने यज्ञों में उन्होंनें शुद्ध स्वर्ण से बने सौध दान किये। वे सागर भी मर गये। वेन-पुत्र आदिराज पृथु ने पुत्री बनाया पूरी धरित्री को। इसी से यह पृथ्वी कहलाती है। समस्त प्रजा का रंजन करने के कारण वे राजा कहे गये। पृथ्वी बिना जोते, बोये उनके राज्य में अन्न देती थी। औषधियों में रस भरा था। समुद्र के किनारे मोती और पर्वतों पर ऊपर ही रत्न बिखरे-बिखरे रहते थे। मनुष्य इच्छानुसार घरों में या खेतों में रहें, उन्हें आतप, वर्षा, वायु कष्ट नहीं देते थे। पृथु के जाते समय नदियाँ बहना बन्द करके मार्ग देती थीं और समुद्र का जल स्थिर होकर उनके रथ को जाने देता था। उनके अश्वमेध यज्ञ के अन्त में साक्षात श्रीहरि पधारे। काल ने उन पृथु को भी पृथ्वी पर कहाँ छोड़ा।' देवर्षि नारद का यह उपदेश सुनाकर श्रीकृष्ण ने कहा– 'राजन ! आप जिनका भी स्मरण करके शोक कर रहे हैं, उनमें-से भीष्म, द्रोण, कर्णादि कोई इन ऊपर कहे गये लोकोत्तर पुरुषों की तुलना के किसी अंश में नहीं आते और जब वे ही अमर नहीं रहे तो दूसरे कैसे रह सकते हैं। आपने कुरुक्षेत्र में उस बर्बरीक के सिर का कथन सुना है। मनुष्य को केवल काल ही मारता है। युद्ध में जिनका काल आ गया था, वही मारे गये। उनको कोई बचा नहीं सकता था। आप अपने को निमित्त मानकर व्यर्थ दु:खी हो रहे हैं। आप अब इस अविचार से उत्पन्न शोक का त्याग करें। यह तामस भाव किसी का भी कल्याण नहीं करता। तपस्या उत्तम है; किन्तु वह जब शोक, मोह, लोभ या क्रोध के आवेशवश की जाती है तो कर्ता को कुपथ में लगाकर नरक का हेतु बनती है। आपको यह शोक इस समय कर्त्तव्य से पराङ्मुख कर रहा है। अत: आप इसे त्यागकर नगर-प्रवेश करें और राज्य का शासन सम्हालकर पीड़ितों को संरक्षण दें।' युधिष्ठिर को आश्वासन प्राप्त हुआ। भगवान व्यास ने उन्हें प्रायश्चित-विधान बतलाया और भीष्म के समीप जाकर धर्म का रहस्य जानने को कहा। धर्मराज ने शासन सम्हालना स्वीकार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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