पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
80. बर्बरीक का सिर
ये सब सेवक प्राय: हस्तिनापुर से आये थे। कल तक सब दुर्योधन के विनम्र आज्ञापालक थे; किन्तु संसार का यही नियम है कि वह सत्तारूढ़ को स्वामी मानकर उसी की स्तुति करता है। उसी के सामने सिर झुकाता है। जो सत्ताच्युत हो गया, संसार उसे भूलने में दो क्षण की भी देर नहीं करता। अब इन सेवकों के लिए कौरव-पक्ष में कहीं कोई स्मरणीय ही नहीं रहा। ये बिचारे तो क्षुद्र सेवक हैं। बडे़-बड़े विद्वान और मानधनी भी प्राय: यही करते हैं। अनजान में ही मनुष्य की ऐसी प्रवृति हो जाती है, ऐसा कहना भी अनुचित नहीं होगा। सेवकों का यह स्वर बार-बार श्रवणों में पड़ते-पड़ते बड़ो में भी संस्कार बनने लगा। उनमें किसी ने कुछ कहा तो नही; किन्तु मन्थन सब के मन में होने लगा कि युद्ध में विजय का श्रेय सर्वाधिक किसे दिया जाना चाहिये। इसमें दो ही नाम थे– भीमसेन और अर्जुन और दोनों के मध्य यह निर्णय कर देना सरल नहीं था। क्योंकि अर्जुन ने यदि भीष्म और कर्ण को मारा था तो दुर्योधन, दु:शासनादि सभी धृतराष्ट्र के पुत्रों को भी भीमसेन ने ही समर शय्या दी थी। नियम यह है कि सेना में किसी के भी पौरुष से विजय प्राप्त हो, सेनापति की विजय मानी जाती है; किन्तु पाण्डव पक्ष के प्रधान सेनापति धृष्टद्युम्न तो अब जीवित नहीं थे। युद्धकाल में भी प्राधान्य उनकी नहीं था, प्रधानता तो भीमसेन और अर्जुन की ही रही थी। इन दोनों में से ही किसी एक ने अथवा दोनों ने मिलकर विरोधी के बड़े आक्रमणों को विफल किया था और भीष्म, द्रोण, कर्णादि के बनाये विकट व्यूहों को विध्वस्त किया था। दूसरों तक ही यह चर्चा-चिन्तन चलकर शान्त हो जाता तो कोई बात नहीं थी; किन्तु इसका प्रभाव भीमसेन और अर्जुन के भी मन पर पड़ने लगा है, यह श्रीकृष्ण ने देख लिया। वे स्वजनों की सदा सावधान-सम्हाल रखने वाले कृपासिन्धु समझ गये कि भले यह अहंकार का बीज भी अल्प दीख रहा हो; किन्तु अवसर मिलने पर अनर्थकारी महातरु बन सकता है। इसमें से स्पर्धा, द्वेष जैसे विषफल फलेंगे। अत: इसका उन्मूलन ही उत्तम। श्रीकृष्ण ने स्वयं सहदेव से कहा– 'ये सेवक बहुत देर से चर्चा कर रहे हैं कि युद्ध में विजय का श्रेय भीमसेन या अर्जुन में-से किसको है।' 'आपकी क्या सम्मति है ?' सहदेव ने पूछ लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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