पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
79. गान्धारी का शाप
गान्धारी का सौभाग्य ही था कि वह युद्धभूमि देख नहीं सकती थीं। उन्होंने पति-गृह आने के क्षण से जो अपने नेत्रों पर पट्टी बांध ली थी, वह महान पुण्य ही उनको इस दारुण दृश्य को देखने से बचाये था। लेकिन उनके श्रवण अधिक सतेज हो गये थे, जैसे अन्धों के हो जाया करते हैं। यह विशेषता आज उनके लिए अभिशाप बन गयी थी। वे अपनी सभी पुत्र वधुओं का चीत्कार पृथक-पृथक पहिचान सकती थीं। विधवा पुत्री दु:शला का दारुण क्रन्दन भी कानों में पड़ रहा था। गान्धारी ने श्रीकृष्ण से इन पुत्र-वधुओं की, पुत्री की व्यथा का उल्लेख किया, उसने अन्य सम्बन्धी नरेशों की नारियों का आर्तनाद सुनकर उनके भी पतियों के मारे जाने का वर्णन किया। यह सब करते हुए उसका हृदय फटा जा रहा था। अन्त में उसे क्रोध आ गया। उसका क्रोध किेंचित भी अस्वाभाविक नहीं था। गान्धारी अत्यन्त क्रोध में भरकर बोलीं– 'कृष्ण ! कौरव और पाण्डव परस्पर की फूट के कारण ही नष्ट हुए; किन्तु तुमने समर्थ होते हुए भी इनकी उपेक्षा क्यों कर दी? मेरी और महाराज की बुद्धि मान लो मारी गयी थी या मेरे पुत्र ने हमारी नहीं सुनी तो भी तुम तो उसे बलपूर्वक रोक सकते थे। तुम स्वयं अतुल पराक्रमी हो। तुम्हारे पास अत्यन्त सशक्त सेना थी। तुम सर्वसमर्थ हो। अपने संकल्प से, सैन्यबल से तुम उन्हें दबा सकते थे। तुमने जान बूझकर मेरे वंश का विनाश होने दिया, इसे रोका नहीं तो तुम भी इसका फल भोगो !' श्रीकृष्ण शान्त खड़े रहे। गान्धारी ने शाप दिया- 'तुम्हारे सम्मुख तुम्हारे स्वजन इसी प्रकार लड़कर मरेंगे, जैसे मेरे स्वजन मरे हैं। तुम स्वयं उनका संहार करोगे ! तुम्हारे सामने तुम्हारे कुल की स्त्रियां विधवा हो जायेंगी। आज से छत्तीसवें वर्ष तुम भी अनाथ के समान आहत होकर देहत्याग करोगे। इन भरतकुल की स्त्रियों के समान ही तुम्हारे कुल की स्त्रियां भी रोती बिलखती पतियों का शव ढूंढ़ती फिरेंगी।' परमसती गान्धारी का शाप सुनकर अविचलित स्वस्थ स्वर में कुछ भर्त्सना से करते श्रीकृष्ण बोले– 'राजपुत्री ! तुमने शाप देकर अपना संचित तप व्यर्थ नष्ट कर लिया। यह सब तो होने वाला ही था। मैंने यदुकुल के इस अंत को भी पहले से वैसे ही अनुमोदित कर दिया है जैसे कुरुकुल के ध्वंस को स्वीकार किया।' गान्धारी उन प्रलय के भी अनुमोदक की वाणी सुनकर सिर पकड़कर बैठ गयी। वे पुरुषोत्तम-माया-मोह से सर्वथा परे। उन्हें कहीं भय या शोक स्पर्श करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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