पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
79. गान्धारी का शाप
वे सबकी सब नारियाँ ऐसी थीं कि स्वस्थ दशा में इस भूमि का वर्णन सुनकर भी चीत्कार करके अवश्य मूर्च्छित हो जातीं; किन्तु इस समय वे सब उन्मादिनी हो गयी थीं। उसी रक्त-जमे दलदल में वे हाहाकार करती पिशाचिनियों की भाँति दौड़ने लगी थीं। अपने स्वजनों का शरीर अथवा सिर ढूंढ़ती वे भागती थीं, भटकती थीं, ठोकरें खा-खाकर गिरती थीं। उनके पद, वस्त्र, शरीर रक्त से सनते जा रहे थे; किन्तु उन्हें अपनी सुधि ही कहाँ रही थी। कोई पति अथवा पुत्र या भाई का सिर पा जाती थी तो उसे गोद में लिए उसका शरीर ढूंढ़ रही थी और किसी ने शरीर पहिचान लिया तो उसे सिर नहीं मिल रहा था। वे सुकोमल राजकुलवधुएं, उनकी वह दशा, उनका वह क्रन्दन– उसकी कल्पना भी अत्यन्त दारुण है। युधिष्ठिर ही नहीं,उनके सब भाई और दूसरे भी मूर्च्छित हो गये होते यदि कर्तव्य की कठोर प्रेरणा ने उन्हें कर्म में न लगा दिया होता। यद्यपि शीतकाल था; किन्तु युद्धभूमि से भयंकर दुर्गन्धि उठने लगी थी। सहस्त्रवश: सेवक लग गये थे बहुत बड़ी चितायें सजाने में। अब किसी अत्यन्त प्रतापी नरेश अथवा अपने प्रिय स्वजन सम्बन्धी के लिए भी पृथक चिता सजना सम्भव नहीं रहा था। देवी गान्धारी ने श्रीकृष्ण को अपने समीप बुला लिया और वे कहने लगीं– 'ये मेरी विधवा बहुएँ बाल बिखेरे व्याकुल भाग रही हैं और विलाप कर रही हैं। इस युद्धस्थल को देखकर मैं तो शोक से भस्म हुई जा रही हूँ। पता नहीं पूर्व जन्मों में मैंने कितने पाप किये थे कि मुझे अपने पुत्र, पौत्र, भाइयों का यह महासंहार देखना पड़ा।' दुर्योधन का शव समन्तक-पंचक क्षेत्र से वही सेवक उठा लाये। वह राजा था, अत: उसके लिए एक अकेली चिता सजायी गयी। जब गान्धारी को उसके ज्येष्ठ पुत्र के शव के समीप पहुँचाया गया तो वह मूर्च्छित होकर भूमि में गिर पड़ी। वह बोली– 'मधुसूदन ! जब यह बन्धु-विध्वंसक संग्राम प्रारम्भ हो गया तो मेरे इस पुत्र ने हाथ जोड़कर मुझसे कहा था– 'माता जी ! मुझे युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद दो।' मैंने माँ होकर भी कहा था– 'विजय वहीं होती है, जहाँ धर्म रहता है; किन्तु यदि तुम बिना घबराये सम्मुख युद्ध में मारे गये तो तुम्हें देवताओं के समान उत्तम गति अवश्य प्राप्त होगी।' यह मेरा पुत्र मूर्धाभिषिक्त राजाओं के आगे चलता था और उनको आज्ञा देता था। इसके लिये है मुझे शोक नहीं है। शोक तो मुझे नेत्रहीन महाराज के लिए है कि उनका कोई सहारा ही नहीं रह गया।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज