पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
78. भीमसेन की रक्षा
'हाय भीम ! मुझे अधम ने यह क्या किया !' क्रोध का आवेश शान्त होते ही धृतराष्ट्र फूट पड़े– 'मैंने अपने ही पराक्रमी पुत्र की हत्या कर दी। मुझे धिक्कार है। मैं इस जीवन को बचाकर अब क्या करूंगा।' 'महाराज आप शोक न करें !' श्रीकृष्ण ने शान्त गम्भीर स्वर में कहा– 'आप अत्यन्त क्रुद्ध हैं, यह मैंने देख लिया था। अत: मैंने भीमसेन को आपके समीप जाने से रोक लिया। मैं जानता था कि आपकी भुजाओं के मध्य पहुँच कर वे जीवित नहीं बचेंगे। आप मेरी धृष्टता क्षमा करें। आपके पुत्र ने जो भीमसेन की लौह-मूर्ति बनवा रखी थी, वही मैंने इस समय आपके आगे कर दी। वह मूर्ति टूट गयी। पुत्र-शोक ने आपके मन को धर्म से विचलित कर दिया था; किन्तु मैं जानता था कि आप सत्पुरुष हैं और यदि आपके हाथ से भीम का वध हो गया तो आप अपने को क्षमा नहीं कर पावेंगे। यह विनाश तो आपके प्रमाद से हुआ। आपने समझाने पर भी मेरी बात उस समय नहीं मानी। आपने भीष्म, द्रोण, विदुर आदि शुभैषियों की सलाह भी अनसुनी कर दी। अतः आप भीमसेन पर क्रोध क्यों करते हैं। भीमसेन ने तो उस अपराध का बदला ही लिया है, जिसे आपके पुत्रों ने आपके समक्ष आपके संरक्षण में भरी सभा में द्रौपदी को आपमानित करके किया था। आप अपने और अपने दुष्ट पुत्रों के अपराधों पर दृष्टि ही नहीं देते? पाण्डवों का कुछ अपराध था कि आपने उन्हें राज्य से निर्वासित करके वन में भेज दिया था? पाण्डु के पुत्र आपको पूज्य मानकर आपका सम्मान करते रहे, इसलिए आपको उस सम्मान का दुरुपयोग करने का स्वत्व हो गया और आपने उन्हें द्यूत खेलने की आज्ञा देकर विवश किया? अब भी आप उनके सम्मान का दुरुपयोग ही करने पर उतारू हैं?' श्रीकृष्ण का स्वर बहुत कठोर हो गया था। उनके स्वर में भर्त्सना थी, चेतावनी थी। धृतराष्ट्र इतने अज्ञानी नहीं थे कि इस चेतावनी को न समझ सकें। वे अन्धे हैं, सभी पुत्रों के मारे जाने से अनाश्रित हैं, उन्हें अब पाण्डवों की कृपा पर ही अवलम्बित रहना है, अब वे यह क्रोध किस बल पर दिखाते हैं? उन्हें अपने स्वजनों की अन्त्येष्टि के लिए भी युधिष्ठिर की अनुमति तथा सहायता अपेक्षित है और वे हैं कि पाण्डवों के शील का दुरुपयोग करके दुष्टता ही किये चले जा रहे हैं? यह कठोर स्वर चेतावनी थी कि धृतराष्ट्र को अब और क्षमा नहीं किया जायेगा। युधिष्ठिर अपने सौजन्य के कारण भले कुछ न कहें, कुछ न करें; किन्तु श्रीकृष्ण किसी को भी दण्ड देने में कभी असमर्थ नहीं होते और अब धृतराष्ट्र को अपने अपराध समझना चाहिए। उन्हें अधिक उद्दण्डता नहीं करने दी जायेगी। 'माधव ! तुम ठीक कहते हो।' धृतराष्ट्र स्वर ढीला हो गया- 'भीमसेन को बचाकर तुमने मेरी भी प्राण रक्षा कर ली। मेरा क्रोध शान्त हो गया। मैं तो अब तुम्हारे और पाण्डवों के ही आश्रित हूँ। मुझ अन्धे का अपराध तुम्हें क्षमा करना चाहिए।' धृतराष्ट्र ने भीमसेन से मिलने की इच्छा की। भीम ने उन्हें प्रणाम किया तो रोते-रोते उन्होंने भीमसेन को गले लगाकर मस्तक पर हाथ फेरते हुए आशीर्वाद दिया- 'तुम सबका कल्याण हो।' युधिष्ठिर के, विदुर के, कुन्ती के नेत्र भर आये थे। इन वासुदेव ने यहाँ भी अकल्पित विपत्ति से भीमसेन को बचाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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