पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
78. भीमसेन की रक्षा
श्रीकृष्ण ने एक सावधानी की थी। दुर्योधन ने भीमसेन की एक लौह-मूर्ति सर्वथा भीम के समानाकार की ही बनवा रखी थी और वह उस पर गदा मार-मारकर गदा-युद्ध का अभ्यास करता रहा था। मूर्ति इतनी सुदृढ़ थी कि वर्षों तक दुर्योधन के गदाघात से भी उसका कुछ बिगड़ा नहीं था। जब सांयकाल ओघवती नदी के तट से युधिष्ठिर के कहने से श्रीकृष्ण हस्तिनापुर गान्धारी को शान्त करने गये तो वहाँ से लौटते समय राजभवन के द्वार पर खड़ी वह मूर्ति अपने रथ में रख लाये थे। वह मूर्ति उनके रथ में ही अब भी थी और इस यात्रा में भी साथ थी। उसकी ओर ध्यान देने का अवसर ही नहीं मिला था। महाराज युधिष्ठिर के लिए बहुत दु:खद-बहुत कठिन अवसर था वह जब गंगा किनारे पहुँचने पर सहस्रों क्रन्दन करती विधवाओं ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। सबका एक ही स्वर– आप धर्मराज हैं? अपने पितामह, चाचा, ताऊ, गुरु, भाई, पुत्र, मित्र सबको मरवा डाला आपने और द्रौपदी के पुत्रों तथा अभिमन्यु को भी खोकर अब धर्मराज्य की स्थापना करेंगे आप?' बड़ी कठिनाई से उन रोती, पृथ्वी पर पछाड़ खाती नारियों के अपार समूह को युधिष्ठिर ने भाइयों के साथ पार किया। सबने सिर झुका रखा था। और इन लोगों के हृदय की वेदना का भी अन्त नहीं था। किसी प्रकार ये लोग धृतराष्ट्र तक पहुँचे। युधिष्ठिर ने बड़े आदरपूर्वक अपने पिता के बड़े भाई धृतराष्ट्र के चरणों में अपना नाम लेकर प्रणाम किया। धृतराष्ट्र पुत्र-शोक से बहुत अधिक व्याकुल थे। उन्होंने उदासीन भाव से युधिष्ठिर को गले लगाया; किन्तु तभी उनके ललाट पर क्रोध से आकुंचन आ गया। उनकी भौंहे कठोर हो गयीं। इसे श्रीकृष्ण ने देख लिया। प्रणाम करने के लिए युधिष्ठिर के पश्चात भीमसेन को जाना था, वे बढ़े तो श्रीकृष्ण ने हाथ पकड़कर उन्हें रोक लिया। दारुक को संकेत से बुलाकर रथ में रखी लौह-मूर्ति उतार लाने को कह दिया। अर्जुन, नकुल, सहदेव, श्रीकृष्ण, सात्यकि सब ने प्रणाम किया धृतराष्ट्र को। वे भी अत्यन्त उदासीन बने सबको गले लगाते गये। अन्त में उन्होंने ही पूछा– 'भीमसेन नहीं आया?' 'वे आये हैं !' कहकर श्रीकृष्ण ने वह लौह-मूर्ति आगे बढ़ा दी। धृतराष्ट्र ने उस मूर्ति को भुजाओं में भरकर पूरे बल से अपने वक्ष क्रोध में दबाया। वे वृद्धास्था में भी इतने बलवान थे कि जो मूर्ति वर्षों तक दुर्योधन के गदाघात से नहीं टूटी थी, वह उनके दबाव से कड़कड़ाकर खण्ड-खण्ड हो गयी। लेकिन इस अतिशय दबाव के कारण उनके मुख से रक्त निकलने लगा। उस समय संजय ने उन्हें सम्हाला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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