पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
75. अश्वत्थामा से रक्षा
द्रोण पुत्र अत्यन्त क्रूर है और उसे धर्माधर्म का कोई विचार नहीं रहता। उसके पास अमोघ, त्रिभुवन भयंकर ब्रह्मास्त्र है और वह उसका उपयोग करने में एकक्षण भी नहीं हिचकेगा। भीमसेन इस अस्त्राग्नि में रुई के समान भस्म हो सकते हैं। अत: मैं अर्जुन के साथ जा रहा हूँ। केवल अर्जुन के समीप वह ब्रह्मशिरास्त्र है। दूसरा कोई अश्वत्थामा के अस्त्र का प्रतिकार नहीं कर सकता।’ सचमुच अश्वत्थामा ने उस अमोघास्त्र का प्रयोग करने में कोई हिचक नहीं दिखलाई। उसके रथ के अश्व तो दौड़ते-दौड़ते थककर गिरे और मर गये थे। वह पैदल ही वन में जाकर छिपा था। भीमसेन को उसके समीप तक पहुँचने में बहुत देर लगी, यही कुशल हुई। भीमसेन के सारथि को अश्वत्थामा के रथ-चक-चिह्नों का पीछा करते पहले समन्त-पञ्चक क्षेत्र में दुर्योधन के शव तक जाना पड़ा। वहाँ से फिर वन की ओर वह मुड़ा। इस सब में अर्जुन को लिए अपने गरुड़ध्वज रथ पर बैठे श्रीकृष्ण भी भीमसेन के समीप आ गये। अश्वत्थामा युद्ध करने की स्थिति में नहीं था। उसने क्रुद्ध भीमसेन का सिंह-गर्जन सुना और गाण्डीव चढ़ाये अर्जुन को आते देखा तो जल से आचमन करके अमोघ ब्रह्मास्त्र का संधान किया। उस अस्त्र के प्रलयकारी तेज को देखकर अर्जुन भी कांप उठे। उन्होंने पूछा- मधुसूदन ! यह प्रचण्ड तेज कैसा है जो हमारी ओर बढ़ा आ रहा है ? मैं इसे समझ नहीं पाता हूँ। आप ही अब हमारी रक्षा करें ।' 'अर्जुन सावधान !' श्रीकृष्ण बोले- 'यह अश्वत्थामा द्वारा प्रयुक्त ब्रह्मास्त्र है। वह इसे लौटाना नहीं जानता। तुमने कभी उपयोग नहीं किया, इसलिये इसे पहचानते नहीं हो। केवल इसी अस्त्र से इसका प्रतिकार सम्भव है। तुम भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करो और फिर दोनों को लौटा लो।' अर्जुन को यही करना पड़ा। श्रीकृष्ण की सन्निधि ने ही भीमसेन और उनको आज बचाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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