पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
74. पाण्डव-परित्राण
महाराज ! पाण्डवों कोई अपराध नहीं है। वे धर्म या न्याय से गिरे नहीं हैं। उनके प्रति मन में कोई दुर्भाव हो भी तो उसे दूर कर दीजिये। अब उनके ही हाथों आप दोनों को पिण्ड प्राप्त होने वाला है। उन्हीं से आपको पुत्र की सेवा मिलेगी और उन्हीं से वंश चलेगा। आप धर्मराज युधिष्ठिर का स्वभाव जानते हैं। यह भी जानते हैं कि आपके चरणों में उनकी कितनी भक्ति है। वे इतने शोक-संतप्त हैं कि मुझे उनके लिए चिन्ता है। उन्हें रात-दिन कभी शान्ति नहीं। आप तथा देवी गान्धारी के लिए वे बहुत शोक करते हैं। लज्जा के कारण आपके सम्मुख आने का साहस उनको नहीं हो रहा है। देवी गान्धारी से श्रीकृष्ण बोले- 'देवि ! आज संसार में तुम्हारे समान तपस्विनी स्त्री दूसरी नहीं है। तुम्हारे समान पुण्यवती स्त्री ने उस दिन सभा में दोनों पक्षों का हित करने वाला वचन कहा; किन्तु दुर्भाग्य की प्रेरणा से दुर्योधन न उसे नहीं माना। तुमने ही कहा था- 'मूर्ख ! जिधर धर्म होता है, विजय उसी पक्ष की होती है।' तुम्हारी बात असत्य नहीं हो सकती थी। अत: मन में शोक मत करो। पाण्डवों के प्रति कोई दुर्भाव मन में मत लाना।' गान्धारी ने बहुत खिन्न स्वर में कहा- 'केशव ! आप ठीक कहते हैं। अब तक मेरे मन में बहुत व्यथा थी। मेरा वात्सल्य मुझे क्रोध से जला रहा था। पाण्डवों के अनिष्ट की बात मैं सचमुच सोच रही थी; किन्तु तुम्हारी बातें सुनकर मेरा आवेश जाता रहा। मेरी बुद्धि स्थिर हो गयी। मैं क्रोध में अपना ही अनिष्ट कर लेती। आपने मुझे बचा लिया। ये राजा अंधे हैं, वृद्ध हैं और सब पुत्रों के मारे जाने से शोक-संतप्त हैं। अब पाण्डवों के साथ इनके भी आप ही संरक्षक हैं।' गान्धारी इतना कहकर व्याकुल हो गयीं। वे अञ्चल से मुख ढककर रोने लगीं। श्रीकृष्ण उन्हें अनेक प्रकार से समझाते रहे। ऐसे अवसर पर किसे स्मरण रहता है कि रात्रि कितनी व्यतीत हो गयी है। अचानक श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए। उनका इस प्रकार उठ खड़ा होना व्यास जी को भी अद्भुत लगा। धृतराष्ट्र ने तो टटोलकर उनका हाथ पकड़ा। कोई कुछ पूछे, इससे पहले ही भगवान व्यास के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करके वे धृतराष्ट्र से बोले- 'महाराज ! मैं जाने की आज्ञा चाहता हूँ। इस समय द्रोण पुत्र अश्वत्थामा के मन में बहुत पापपूर्ण विचार उठा है। वह रात्रि में सोते हुए असावधान पाण्डवों को मार देना चाहता है।' 'जनार्दन ! आप शीघ्र जाकर उनकी रक्षा करें।' धृतराष्ट्र और गान्धारी दोनों ने एक साथ कहा- 'अब हमारे भी वही सहारे रह गये हैं। उनकी रक्षा करके हमें फिर आप अवश्य दर्शन दें।' श्रीकृष्ण वहाँ से पाण्डवों के समीप आ गये। वे समीप हों तो किसी का कुविचार कोई अनिष्ट करने में कैसे समर्थ हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज