पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
73. अर्जुन का रथ भस्म
'यह क्या हुआ ?' सब लोग दौड़कर अर्जुन के आसपास पहुँच गये। सब चकित उस धू-धू कर जलते रथ को देखते रहे थे। अर्जुन न दोनों हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और बोला- 'गोविन्द ! यह क्या रहस्य है ? अकस्मात अकारण रथ क्यों जल गया ? 'विजय ! यह रथ आज नहीं जला है।' श्रीकृष्ण ने कहा- 'यह तो आचार्य द्रोण के दिव्यास्त्र से ही जल चुका था। कर्ण ने भी इसे भस्म करने का कम प्रयत्न नहीं किया; किन्तु उसे पता नहीं था कि भस्म की ढेरी को भस्म नहीं किया जा सकता।' 'भस्म की ढेरी ?' अर्जुन तथा दूसरे भी भूमिपर बिखरी भस्म की ढेरी को घूरकर देखने लगे। इतनी शीघ्र जलकर रथ भस्म की ढेरी बन गया और वह निर्धूम भस्म-राशि शीतल सम्मुख पड़ी है, क्षणों में ही उसमें से अग्नि की कणिका तक समाप्त हो गयी यह तो सम्मुख था। अर्जुन ने आश्चर्य से पूछा- 'हम दोनों तब से इस भस्म की ढेरी पर बैठते थे ?' ‘हाँ’ श्रीकृष्ण ने कहा- 'इसे मैंने तबसे तुम्हारे प्रयोजन की पूर्ति पर्यन्त के लिये अपने संकल्प-बल से जल जाने से रोक रखा था। तुम्हारे रथ का कोई अश्व मारा जाय तो उसके स्थान पर दूसरा अश्व स्वत: प्रकट हो जाता था; किन्तु तुम स्मरण कर सकते हो कि द्रोण-युद्ध के पश्चात तुम्हारे रथ का कोई अश्व मारा ही नहीं गया। आज तुम्हारे प्रयोजन की पूर्ति हो गयी। यदि मैं आज रथ से तुमसे पहले उतर जाता- रथ तो मेरे बैठे रहने तक ही भस्म होने से बचा था।' श्रीकृष्ण ने मध्य में जो शब्द अनकहे छोड़ दिेये थे, वे स्वयं सबकी समझ में आ गये। अर्जुन के साथ सभी सिहर उठे। अब अर्जुन को रथ से प्रथम उतारने का प्रयोजन प्रकट हो चुका था। श्रीकृष्ण ने हँसते हुए राजा युधिष्ठिर को हृदय से लगाया। बोले- महाराज ! आपके शत्रु समाप्त हो गये। आप विजयी हुए। आप अपने भाइयों के साथ इस संग्राम से सकुशल बच गये। यह सब आपके पुण्यों का प्रताप है। उपप्लव्य शिविर में युद्धारम्भ से पूर्व जब अर्जुन के साथ मैं आपके पास आया था, तब आपने मुझे मधुपर्क देकर सत्कृत करके कहा था- ‘कृष्ण ! अर्जुन आपका भाई तथा मित्र है। इसे प्रत्येक विपत्ति से बचाना।' मैंने उस दिन आपका आदेश स्वीकार कर लिया था। मैंने उस समय दिये गये अपने वचनों को पूरा कर दिया है। अब आगे क्या करना है, इसका आप शीघ्र विचार करें।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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