पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
72. श्रीबलराम का कोप-शमन
'पाण्डवों को अन्ततः अपनी प्रतिज्ञा के ऋण से भी तो मुक्त होना है।' श्रीकृष्ण ने उसी विनम्र स्वर में कहा- 'आर्य ! संसार जानता है कि आप धर्मात्मा हैं, शान्त हैं और इस समय आपने किसी को भी दण्ड न देने का संकल्प कर रखा है। तीर्थ-यात्रा में हैं आप और वह तो प्रभास पहुँच कर पूरी होगी।' बड़े भाई का सम्मान सुरक्षित रखकर उन्हें उपालम्भ दिया गया था कि भीमसेन ने धर्म की मर्यादा भंग भी की हो तो आपके द्वारा वे दण्डित नहीं हो सकते। आप इस समय किसी को भी दण्ड देकर स्वयं अपने संकल्प को तोड़ेंगे। स्वयं भी धर्म की मर्यादा नष्ट करेंगें। जो भूल नैमिषारण्य में हो गयी, उसका तो आप प्रायश्चित कर रहे हैं।[1] अब पुनः वैसी भूल मत कीजिये।' बलराम जी ने हाथ का हल छोड़ दिया। वे शान्त हो गये। लेकिन उन्हें पूरा सन्तोष नहीं हुआ था। वहाँ उपस्थित लोगों की ओर मुख करके बोले- 'भीमसेन ने अधर्मपूर्वक प्रहार किया है, अतः संसार में सदा कपट युद्ध करने वाला कहा जायगा। इसने अपना यश कलंकित कर लिया। सरलतापूर्वक धर्मयुद्ध करते हुए मारे जाने के कारण दुर्योधन सद्गति प्राप्त करेगा।' यह कहकर श्रीबलराम वहाँ से चल पड़े। उन्होंने पाण्डवों के शिविर चलने की प्रार्थना स्वीकार नहीं की। उनके चले जाने पर भीमसेन ने दुर्योधन को देखा। वे अब तक उसके समीप ही सिर झुकाये खड़े थे। उनका क्रोध फिर भड़क उठा। उन्होंने दुर्योधन को बहुत कठोर वचन कहे। समीप जाकर बायें पैर से उसके मुकुट को ठुकरा दिया और उसके सिर को पैर से दबा कर रगड़ा। उसके कन्धे पर रखी गदा ले ली। उसे कपटी कहकर बार-बार उसका सिर पैर से दबाते, रगड़ते रहे। युधिष्ठिर सिर झुकाये चिन्तामग्न थे। उन्हें श्रीकृष्ण ने सावधान किया- 'राजन ! आप चुपचाप अधर्म का अनुमोदन क्यों कर रहे हैं ? बेचारे दुर्योधन के सब भाई और सहायक मारे जा चुके हैं। वह स्वयं आहत मूर्च्छित प्राय हैं। ऐसी विपन्नावस्था में पड़े शत्रु का अपमान उचित नहीं है। उसके सिर को भीमसेन पैर से ठुकराकर अधर्म कर रहे हैं।' 'मुझे भी यह अच्छा नहीं लगा। 'युधिष्ठिर ने खिन्न कण्ठ से कहा- 'किन्तु दुर्योधन के द्वारा दिये गये बार-बार के कष्ट एवं अपमान के कारण भीम के हृदय में जो उसके लिए भयंकर क्रोध था, उसका ध्यान करके मैंने उनके इस समय के कर्म की उपेक्षा की। उनके क्रोध को निकल जाना चाहिए था।' श्रीकृष्ण को बहुत खेद हुआ। वे उदासीन होकर एक ओर हट गये। भीमसेन ने विजयोल्लास में उल्लासित होकर जब युधिष्ठिर के सम्मुख आकर उन्हें प्रणाम करते हुए बधाई दी तो धर्मराज ने उन्हें हृदय से लगाया। कहा- 'यह इन केशव की कृपा है कि तुम माता के ऋण से उऋण हुए। शत्रु मरा और तुम्हारी विजय हुई।' सब भाईयों ने अंकमाल दी भीमसेन को; किन्तु श्रीकृष्ण ने इसका अवसर नहीं दिया। वे उठे और रथ की ओर जाते हुए बोले- 'अब यहाँ देर तक नहीं रुकना चाहिए। सूर्यास्त का समय समीप है। शीघ्र चलकर कौरव-शिविर को अभी ही अधिकृत कर लेना उचित है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'श्रीद्वारिकाधीश' में यह कथा आचुकी है कि नैमिषारण्य में पहुँच ने पर भी बलराम जी ने सूत रोहर्षण को मार दिया। उसके प्रायश्चित स्वरूप व भारत के तीर्थो की यात्रा करने निकले थे।
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