पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
67. नाग से रक्षा
अर्जुन को इससे कोई घबराहट नहीं हुई। उन्होंने शीघ्रतापूर्वक अपने शिरपर श्वेत उष्णीष (साफा) बाँध लिया। सुर, महर्षि तथा स्वंय अर्जुन भी समझते थे कि मृत्यु के मुख से उन्हें उनके सारथि बने सर्वसमर्थ सखाने ही बचाया है। अश्व तो एक झटके में झुककर पुनः उठ खड़े हुए थे और श्रीकृष्ण ने धँसे पहिये ऊपर उठा लिये थे बिना रथ से उतरे। उन्होंने अर्जुन को फिर सावधान किया। अश्वसेन नाग असफल होकर लौटा तो फिर कर्ण के त्रोण में प्रवेश करना चाहता था। कर्ण ने यह देख लिया। कड़ककर पूछा- ‘तुम कौन ?’ अश्वसेन बोला- ‘मैं आपका सहायक हूँ। अच्छी प्रकार लक्ष्य ठीक करके तुमने शर-सन्धान नहीं किया था, इससे मैं अर्जुन का मस्तक नहीं उड़ा सका। मुझे एक अवसर और दो। अच्छी प्रकार लक्ष्य-सन्धान करो। इस बार तो मैं आपके शत्रु को समाप्त कर दूगाँ। नाग ने अपना परिचय दिया। अर्जुन से अपनी शत्रुता का कारण बतलाया। महामनस्वी कर्ण ने कहा- ‘नाग ! मेरे अनजाने में तुम मेरे वाण पर बैठ गये थे। कर्ण दूसरे के बल का आश्रय लेकर विजय नहीं पाना चाहता। तुम्हारा सन्धान करके मैं एक नहीं सौ अर्जुन को भी मार सकता होऊँ तो भी मैं एक बाण का दुबारा सन्धान नहीं कर सकता, यह मेरा व्रत है। मेरे पास सर्व बाण है और मुझ में पौरुष है। मैं स्वयं शत्रु का शमन करूँगा। तुम स्वेच्छानुसार जाओ।’ कर्ण को पता नहीं था सर्पमुख बाण अब उसके समीप नहीं है। वह समझता था कि यह नाग बाण बना था; क्योंकि नागों में इच्छानुसार रूप धारण करने की जन्म से सिद्धि होती है। सर्पमुख बाण पर ही अश्वसेन बैठ गया था सूक्ष्म बनकर। अतः वह बाण तो अब रहा नहीं था; किन्तु कर्ण इसे जानता भी होता तो भी अश्वसेन की सहायता वह स्वीकार नहीं करता। जब उसे स्वर्ण त्रोण देखने पर सत्य का पता लगा, तब भी अश्वसेन की सहायता अस्वीकार करने पर उसे कोई पश्चात्ताप नहीं हुआ। कर्ण की अस्वीकृति से अश्वसेन अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा। वह अपना भयंकर रूप प्रकट करके अर्जुन की ओर उड़ चला। 'धनञ्जय सावधान !' श्रीकृष्ण ने नाग को दिखलाते हुए कहा- 'खाण्डव दाह के समय तुम्हारे शर से इसकी केवल पूँछ कटी थी। अब बाण मारकर शरीर से ही इसे मुक्त कर दो, अन्यथा यह तुम्हारी शत्रुता अपने भीतर लिये सदा संतप्त होता रहेगा।' अर्जुन ने अन्तरिक्ष में आड़े-तिरछे उड़कर आते उस नाग को देखा। एक साथ 6 बाण उनके धनुष से छूटे। एक बाण नाग के फण के चिथड़े उड़ा दिये और पाँचने शरीर के 6 टुकड़े काट दिये। अश्वसेन की शत्रुता उसके जीवन के साथ समाप्त हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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