पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
67. नाग से रक्षा
भूमि के नीचे लोक हैं अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल। इनमें- से पाँचवाँ लोक महातल कद्रू के पुत्र तक्षक, सुषेणादि क्रोधवश नामक नाग गणों का है और इनमें अधिक अनेक सिर वाले हैं। नागराज तक्षक का पुत्र अश्वसेन अर्जुन की शत्रुता के कारण महातल से उसी समय अवसर देखकर पृथ्वी पर आया और कर्ण के उस सर्पमुख बाण से एक होकर बाण ही बनकर उस स्वर्ण तरकश में प्रविष्ट हो गया। कर्ण ने उसी समय उस बाण को धनुष पर चढ़ाया। इस प्रकार अश्वसेन नाग ही धनुष पर चढ़ चुका है, यह देखकर देवता हा- हाकार करने लगे। कर्ण के सारथि बने महाराज शल्य ने भी उस भयंकर बाण को देखा। वे कुछ सोचकर कर्ण से बोले- 'कर्ण सावधान, तुम्हारा यह शर शत्रु के कण्ठ में नहीं लगेगा। तनिक चित्त को ठीक करके फिर लक्ष्य सन्धान करो जिसमे यह शत्रु का सिर काट सके।' शल्य सुप्रसिद्ध महारथी थे। अकारण वे लक्ष्य- सन्धान की भूल नहीं सूचित करते होंगे, यह कर्ण को सोचना चाहिए था। आज शल्य ने कर्ण की प्रशंसा करके उत्साहित भी किया था; किन्तु कर्ण बहुत अधिक अभिमानी था। शल्य उसकी प्रायः निन्दा करते रहे थे, अतः उनसे चिढ़ता भी था। उसे लगा कि आज इस समय शल्य उसकी भूल बतलाकर उसे लक्ष्य- सन्धान में अज्ञ सिद्ध करना चाहते हैं। उसने गर्व पूर्वक कहा- 'जैसे वीर कपट पूर्वक युद्ध नहीं करते वैसे ही कर्ण पुनः लक्ष्य-सन्धान नहीं करता।' वर्णो से जिस बाण की कर्ण ने पूजा की थी, जिस पर वह इन्द्र की शक्ति के समान ही भरोसा रखता था, उसे अर्जुन पर छोड़ते हुए चिल्लाया - 'अर्जुन ! अब तू मारा गया।' अन्तरिक्ष में पहुँचते ही उस बाण से विषैली नीली लपटें उठने लगीं। श्रीकृष्ण ने यह देखा और अपनी ओर अपलक देखते पवन पुत्र की ओर दृष्टि उठायी। इतना संकेत हनुमान जी के लिए पर्याप्त था। उन्होंने रथ को अपने पैर से तनिक-सा दबा दिया। इससे रथ के पहिये थोड़े भूमि में धँस गये। श्रीकृष्ण ने उझककर अश्रोंपर भार दिया तों वे भी घुटने टेककर झुक गये, मानों उन्हें ठोकर लगी हो। 'धन्य प्रभु ! धन्य जनार्दन आपका कौशल ! भक्तवत्सल धन्य हो आप !' देवता गगन से एक साथ पुकार उठे। वह बाण आया और अर्जुन का रथ कुछ झुक जाने से कण्ठ पर लगने के स्थान पर मुकुट पर लगा। मुकुट शिर से पृथ्वी पर गिर पड़ा। वह दिव्य मुकुट जिसे सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने सावधानी पूर्वक इन्द्र के लिए बनाया था। अर्जुन जब दैत्यों के साथ संग्राम करने स्वर्ग से चले थे तो सुरेन्द्र ने वह मुकुट प्रसन्न होकर अपने हाथों अर्जुन को पहनाया था। तीनों लोको में प्रशंसित, सदा दिव्य सुरभि प्रसारित करने वाला, स्रष्टा की तपस्या एवं सावधानी से बना वह सूर्यचन्द्र के समान समुज्ज्जवल मुकुट कर्ण के उस बाण तथा अश्रसेन नाग की विषाग्नि से जलता हुआ भूमिपर गिरकर नष्ट हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज