पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
66. हनुमान का आवेश
श्रीकृष्ण के स्पर्श से हनुमान जी रुक तो गये; किन्तु उनकी पूंछ खड़ी होकर आकाश में हिल रही थी। उनके दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बँधी थीं। वे दाँत कट-कटा रहे थे और आग्नेय नेत्रों से कर्ण को घूर रहे थे शल्य और कर्ण दोनों के शरीर काँपने लगे थे और स्वेद धारा चल रही थी। दोनों ने दृष्टि नीचे कर रखी थी। 'हनुमान ! मेरी ओर देखो।' श्रीकृष्ण ने कुछ कड़े स्वर में कहा- ‘तुम इस प्रकार देखोगे तो कर्ण कुछ क्षण में तुम्हारी दृष्टि से ही मर जायगा। यह त्रेता नहीं है। तुम्हारे पराक्रम को तो दूर तुम्हारे तेज को भी कोई यहाँ सह नहीं सकता। तुमको मैंने इस युद्ध में शान्त रहकर बैठे रहने को कहा है।’ हनुमान जी ने नीचे देखा और देखते ही शान्त हो गये। उनके सम्मुख तो वही स्वस्थ सुन्दर श्याम श्रीअंग है। स्मरण आया- लंका में भी प्रभु ऐसे ही रण क्रीड़ा करते थे। इन्द्रजीत या रावण के पराक्रम का सम्मान करने के लिए श्रीअंग पर वाणों को सहते थे, रक्तस्त्राव एवं क्षत दिखलाते थे अपने अंगों में; किन्तु सन्ध्या-काल में युद्धान्त होने पर स्पष्ट हो जाता था कि उनके सच्चिदानन्दघन श्रीविग्रह को कोई शरस्पर्श भी नहीं कर सका है। वह कोई पार्थिव शरीर है कि बाण उसमें विकार उत्पत्र कर सकेंगे। प्रभु तो यहाँ भी वही रणक्रीड़ा कर रहे हैं। बड़ा पश्चात्ताप हुआ- ‘मैंने आज्ञा की अवज्ञा की है।’ हनुमान जी फिर उठ खड़े हुए और अपने दोनों हाथों के वज्र नख उन्होंने अपनी ही छाती पर लगाया। वे अपना वक्ष विदीर्ण कर देना चाहते थे। ‘हनुमान ! मेरे बच्चे !’ श्रीकृष्ण के करने फिर उनका स्पर्श किया और उन अनन्त स्नेह-सिन्धु का सुधास्त्रावी स्वर श्रवणों में पड़ा- ‘तुम शान्त बैठो ! बैठ रहो ! तुम्हारा शरीर अपना नहीं है कि तुम उसे नष्ट कर दोगे। मैं चाहता हुँ कि- ‘तुम मेरे समीप बने रहो। तुम्हें मेरी ओर देखना चाहिए। मैं कोई संकेत कर सकता हूँ किसी भी क्षण, कभी भी मुझे तुम्हारी कोई सेवा आवश्यक हो सकती है।’ इस स्वर ने हनुमान जी को सर्वथा शान्त कर दिया। वे ऐसे सिकुड़कर बैठ गये जैसे कोई शिशु कुछ ऊधम करने के पश्चात् माता का उपालम्भ पाकर संकुचित होकर बैठ जाता है। अब उन्होंने यदा-कदा ध्वजा पर चढ़कर चारों ओर देखना भी बन्द कर दिया। वैसे भी इस प्रकार देखकर उन्हें कोई प्रसत्रता नहीं होती थी। उन्हें लंका का स्मरण आता था और उस समय के राक्षस प्रति-पक्षियों की तुलना में चारों ओर दौड़ते भागते, गरजते ये मनुष्य, गज आदि अत्यन्त छुद्र लगते थे। जैसे किसी मनुष्य को चीटियों के दो दलों का परस्पर युद्ध उपेक्षणीय प्रतीत हो। प्रायः खिन्न होकर ही वे सदा ध्वजा से उतरकर दण्ड के समीप बैठ जाते थे। उन्होंने अनुभव ही नहीं किया था कि उनके इस प्रकार चारों ओर देखने मात्र से कितना आतंक फैलता था सेना में। हाथियों की सेना तो अपने पक्ष को कुचलती भाग ही खड़ी होती थी। ‘प्रभु कभी भी कोई सेवा संकेत से सूचित कर सकते हैं।’ यह बात मन में आते ही श्रीकेशरीकुमार अत्यन्त सतर्क हो गये, उनकी दृष्टि अपलक श्रीकृष्ण के मुख पर लग गयी। श्रीकृष्ण ने दूसरा कवच धारण कर लिया। हनुमान जी के सिर झुकाकर शान्त बैठ जाने पर भी कर्ण को कुछ क्षण लगे अपने को स्वस्थ करके धनुष उठाने में। शल्य ने भी अपने मुख का स्वेद पोंछा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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