पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
65. बात का बतंगड़
'भैया ! मैं सदा तुम लोगों को दुःख ही देता रहा हुँ।' रोते-रोते युधिष्ठिर ने कहा- 'मैं स्वार्थी हुँ, दुर्व्यसनी हुँ, निष्ठुर हुँ। मेरे कारण तुम भाइयों ने बचपन से ही बराबर क्लेश सहा है। घूत खेलकर तो मैंने अपनी अज्ञता की सीमा कर दी। तुम लोगों ने शत्रुओं का अपमान सहा, वन-वन भटकने का कष्ट भोगा। मेरे लिए तुम वृहन्नला बने और उग्र तपक रने गये। आज भी मेरे ही लिए तुम सब भाई निरन्तर शराघात सह रहे हो। सब प्रपञ्चों की, विपत्तियों की जड़ मैं ही हुँ।' धर्मराज ने मुकुट उतार दिया था। वे अत्यन्त खित्र बोले- 'तुम सब अब अपने इस अयोग्य, निष्ठुर, अधम अग्रज को क्षमा करना। सम्राट होने योग्य भीमसेन ही हैं। विजय प्राप्त करके उनका अभिषेक कर देना। मैं अब वन में जा रहा हूँ। वहाँ तपस्या करके पापों का परिमार्जन करने का प्रयत्न करूँगा।' युधिष्ठिर उठ खडे़ हुए उन्होंने उपचार करने वाले चिकित्सक के कुछ कहने का प्रयास हाथ के संकेत से रोक दिया। अपनी शैय्या से वे उठे ही थे कि श्रीकृष्ण ने उनके चरण पकड़ लिये- 'यदि मुझ पर आपका कुछ भी स्नेह है तो चुपचाप शैय्या पर लेट जायँ और मेरी बात सुनें।' सर्वेश्वर ! पुरुषोत्तम !' हड़बड़ाकर धर्मराज ने श्रीकृष्ण के दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिये और वैसे उन्हें पकड़े हुए ही शैय्या पर लेट गये। उनके नेत्रों से अजस्त्र अश्रुधारा चालू ही थी। कठिनाई से वे कह सके- 'तुम्हारी बात सुनने के लिए जीव के कर्ण जब बधिर हो जाते हैं, तभी तो वह भवाटवी में भटकता है। तुम्हारे शब्द श्रवणों में पड़ें उसका अहो भाग्य !' महाराज ! आप अपने अनुजों को जानते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा- 'आप भली प्रकार जानते है कि यदि आप वन में जाते हैं तो आपके शेष चारों भाई आपका पदानुसरण किये बिना नहीं रह सकते। इससे केवल आपके शत्रुओं का ही भला होगा। अतः आप यह विचार सर्वथा त्याग दें। अब अर्जुन को आज्ञा दें युद्ध भुमि में जाने कि और आशीर्वाद दें।' अर्जुन ने बड़े भाई के चरणों में मस्तक रखा ओैर प्रतिज्ञा कि- 'आज कर्ण को मारकर ही मैं सायंकाल श्रीकृष्ण के साथ शिविर में लौटूँगा।' युधिष्ठिर ने उठकर अर्जुन को हृदय से लगाया। उन्हें विजयी होने का आशीर्वाद दिया और युद्धभूमि की ओर विदा करते हुए बोले- 'धनञ्जय ! इन श्रीकृष्णचन्द्र की सहायता, संरक्षण हमें प्राप्त है, अतः सफलता तुम्हारे चरण अवश्य चूमेगी। तुम चलो ! में भी कुछ विश्राम करके शीघ्र आ रहा हुँ। श्रीकृष्ण के करों में तुम्हें सौंपकर में निश्चिन्त हुँ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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