पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
65. बात का बतंगड़
संशप्तको के साथ यु़द्ध में लगे होने पर भी श्रीकृष्ण की दृष्टि मुख्य युद्ध भूमि पर लगी थी। वे अर्जुन को मुख्य युद्ध का समाचार देते जा रहे थे। उन्होंने राजा युधिष्ठिर के युद्ध में लगने की बात कही उन्होंने यह भी कहा कि कर्ण धृतराष्ट्र के महारथी पुत्रों को उत्तेजित कर रहा है कि वे युधिष्ठिर को मार डालें। श्रीकृष्ण ने कहा- 'धृतराष्ट्र के पुत्रों ने घेरकर युधिष्ठिर पर आक्रमण कर दिया है। वे आतुर हो गये हैं इस समय उन्हें विशेष सेवा की आवश्यकता है। अब शीध्रता करने का समय है किन्तु पाञ्चाल तथा पाण्डव वीर उनकी सहायता को दौड़ पड़े है। हर्ष की बात है कि धर्मराज युधिष्ठिर जीवित हैं।' श्रीकुष्ण ने भीमसेन के प्रबल पराक्रम तथा शत्रुसंहार की बहुत प्रशंसा की। उनके यु़द्ध का पुरे विस्तार से वर्णन सुनाया। कर्ण सम्भवतः युधिष्ठिर को पकड़ भी लेता; किन्तु शल्य ने उसे उसी समय कह दिया- 'तुम को तो अर्जुन से युद्ध करना है और अर्जुन वहाँ सेना का संहार कर रहे है।' उसी समय दुर्योधन को भीमसेन ने आक्रान्त कर रखा था। कर्ण को दुर्योधनकी सहायता के लिये दौड़ना पड़ा। उसके चले जाने पर युधिष्ठिर सहदेव के तीव्रगामी रथ पर बैठकर शिविर में लौट आये थे। संशप्तकों को पराजित करके अर्जुन ने कर्ण की और ध्यान देना चाहा तो श्रीकृष्ण ने कहा- 'कर्ण ने राजा युधिष्ठिर को बहुत घायल कर दिया है। उनसे मिलकर, उन्हें धैर्य देकर तब कर्ण से युद्ध करना।' अब सेना में ढूँढने पर भी धर्मराज नहीं मिले। भीमसेन के समीप पहुँचकर पूछने पर पता लगा कि वे शिविर लौट गये हैं और किसी प्रकार ही जीवित होंगे। अर्जुन चाहते थे कि भीमसेन ने शिविर में जाकर बड़े भाई को देख आवें; किन्तु भीमसेन ने कह दिया- 'मैं यदि गया तो शत्रु भयभीत होकर भागा मानेंगे। मैं संशप्तकों को भी रोके रहुँगा। तुम्हीं शिविर हो आओ।' धर्मराज युधिष्ठिर का समाचार चिन्ताजानक था। उनको देखना आवश्यक था। अतः अर्जुन के कहने से श्रीकृष्ण ने रथ शिविर की ओर हाँक दिया। शिविर में पहुँचकर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने युधिष्ठिर के चरण स्पर्श किये तो धर्मराज ने समक्षा कि धनञ्जय कर्ण मारकर आये हैं। उन्होंने दोनों का स्वागत किया। कहा- 'तुम लोगों ने सकुशल रहकर कर्ण को मार दिया यह बड़े सौभाग्य की बात है। वर परशुरामजी से अस्त्र-विद्या प्राप्त कर चुका था। कौरवों को वही अग्रणी था। वह संसार का श्रेष्ठतम वीर था। हमारे पक्ष के लिये तो कालरूप ही था।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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