पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
61. सत्यासत्य
द्रोणाचार्य आज अत्यन्त क्रुद्ध थे। वे बहुत आहत थे, थके थे और युद्ध में कवच न उतारने का प्रण कर चुके थे। इससे वे सब मर्यादाएँ भूल गये थे। सामान्य सैनिकों के संहार के लिए भी दिव्यास्त्र ही नहीं ब्रह्मास्त्र तक का प्रयोग करने लगे थे। उनका वेग रोकने को सभी पाण्डवों को वहीं आना पड़ा। आज आचार्य ने युधिष्ठिर तथा अर्जुन के विरुद्ध भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। ये दोनों अस्त्रज्ञ थे, ब्रह्मास्त्र से ब्रह्मास्त्र को इन्होंने शान्त कर दिया, किन्तु द्रोणाचार्य ने महाराज द्रुपद को मार दिया। पांचाल वीरों पर अन्धाधुन्ध दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते चले गये। पाण्डवों में सभी सशंक हो उठे। आचार्य महान अस्त्रवेत्ता हैं। वे कभी भी पाशुपत, नारायणास्त्र या ऐसा ही कोई अमोघास्त्र उठा ले सकते हैं। श्रीकृष्ण ने देखा कि उनके आश्रित पाण्डुपुत्र भयभीत हैं। अपने शरणागतों का संकट उन्हें सह्य नहीं। उनके जन भय पावें, यह वे भव-भय-भंजन कैसे सह लें। आचार्य द्रोण पाण्डवों को नष्ट कर देने का निश्चय कर चुके हैं, यह भी उन सर्वज्ञ ने जान लिया। कोई कितना भी समर्थ हो, श्रीकृष्ण के चरणाश्रितों को नष्ट करने का संकल्प करके वह अपना विनाश ही बुलाता है, यह सत्य प्रकट होने का अवसर आ गया। द्रोणाचार्य स्वयं अपने लिए भी अनर्थ का सृजन करने लगे थे। जो दिव्यास्त्र नहीं जानते थे, उन पर दिव्यास्त्र का प्रयोग पाप था, पतन का हेतु था। अपने लिए पतन का पथ प्रशस्त करने में लगे, दूसरों के लिए संहार के स्वरुप बने, पुण्यात्मा, भगवदाश्रित पाण्डवों का विनाश करने को उद्यत द्रोणाचार्य को देह-बन्धन से विमुक्त कर देना अनिवार्य आवश्यकता बन गया। श्रीकृष्ण बोले- ‘द्रोणाचार्य ने स्वयं युद्धारम्भ में महाराज युधिष्ठिर से कहा है कि उनके हाथ में धनुष रहते इन्द्रादि देवता भी उन्हें पराजित नहीं कर सकते। वे शस्त्र-त्याग कर दें तभी उनका कोई वध कर सकता है। युद्ध में बहुत अप्रिय समाचार मिलने पर वे धनुष रख देते हैं, यह अपना स्वभाव भी उन्होंने बतलाया है। अत: किसी को जाकर उनसे कहना चाहिए कि अश्वत्थामा मारा गया। एकमात्र पुत्र आचार्य को अत्यन्त प्रिय है। उसकी मृत्यु की बात सुनकर वे शस्त्र त्याग कर देंगे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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