पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
6. अक्रूर आये
देवी कुन्ती माता थीं। अपने पितृहीन पुत्रों पर उनका वात्सल्य बहुत था। अत: उनके वर्णन में पर्याप्त अतिशयोक्ति होनी सम्भव थी। अक्रूर ने विदुर से भी पूछा। विदुर धर्मात्मा थे और धृतराष्ट्र तथा पाण्डु के पुत्र उनके लिए समान थे। उनके वर्णन पर विश्वास किया जा सकता था। देवी कुन्ती ने पूछा - ‘मेरे पिता-माता, भाई मुझ हतभागिनी का स्मरण करते हैं? किसी बहिन ने मेरा कभी स्मरण किया है? मेरे भाई के पुत्र कमल लोचन श्रीसंकर्षण और श्रीकृष्ण जो शरणागत वत्सल, परमपुरुष, भक्त प्रतिपालक हैं, कभी अपनी बुआ के इन पितृहीन पुत्रों का स्मरण करते हैं? मैं तो अपने जेठ के पुत्रों में घिरी यहाँ ऐसी हो रही हूँ जैसे अपने शावकों के साथ कोई मृगी भेड़ियों के द्वारा घिर गयी हो। मुझे और इन अनाथ बालकों को यहाँ आकर वे कोई और सहायता न भी करते तो अपने वाक्यों से सान्त्वना तो दे सकते हैं। मुझे उनका आश्वासन ही बहुत है।’ इतना कहते-कहते देवी पृथा के नेत्र झरने लगे। विह्वल हो गयीं और गद्-गद् स्वर में बोलीं - ‘विश्वात्मा ! विश्वभावन महायोगेश्वर कृष्ण ! तुम जो सर्वज्ञ, सर्व समर्थ हो। गोविन्द ! मैं अपने शिशुओं के साथ क्लेश पाती हुई तुम्हारी शरण हूँ। तुम मेरी रक्षा करो ! श्रीकृष्ण ! तुम्हारे चरण कमलों को छोड़कर मृत्यु के भय से भीत मनुष्य के लिए अभय देने वाला आश्रय मुझे और नहीं दीखता। विशुद्ध परम ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ! योगेश्वर, योगस्वरूप ! मैं आपकी शरण हूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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