पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
60. विचित्र प्रसन्नता
दुर्योधन तथा उसके भाइयों ने व्याकुल होकर कर्ण को पुकारा- 'महाबाहु कर्ण ! इन्द्र से प्राप्त अमोघ शक्ति से इस राक्षस को मार दो। अर्जुन और भीमसेन से तो हम पीछे निबट लेंगे किन्तु आधी रात के समय यह राक्षस तो हमें अभी मार डालेगा। इस घोर रूपी राक्षस से प्राण बचेंगे तब हम प्रभात में पाण्डवों से युद्ध करेंगे। इसे तो अविलम्ब मार दो।' कर्ण को भी दूसरा उपाय नहीं दीखता था। वह भी अब तक अनुभव कर चुका था कि घटोत्कच से रात्रि युद्ध में अपने साथ औरों की भी रक्षा वह कर नहीं सकता। सचमुच यदि राक्षस अभी कौरवों को मार देता है तो सवेरे शक्ति बची भी रही तो किस काम की। अत: कर्ण ने वह अमोघ वैयजन्ती नामक शक्ति हाथ में ली ! उस प्रज्वलित शक्ति को देखकर घटोत्कच ने भागना चाहा किन्तु यह प्रयत्न व्यर्थ था। शक्ति का वेग अकल्पनीय था। उसके लगने से घटोत्कच का वक्ष वदीर्ण हो गया किन्तु उस अदम्य साहस मायावी राक्षस ने मरते-मरते भी अपना शरीर इतना बड़ा कर लिया कि हाथ-पैर फैलाकर गिरा तो कौरवों की एक अक्षौहिणी सेना अश्व, गज, रथ सहित उसके शरीर के नीचे पड़कर पिस गयी। भीमसेन के उस पराक्रमी पुत्र ने मरते-मरते भी इस प्रकार पाण्डवों का हित-साधन किया। घटोत्कच की मृत्यु से भी कौरवों के लिए प्रसन्न होने का कारण नहीं था। उनकी एक अक्षौहिणी सेना तो यह राक्षस अपने शरीर से दबाकर मार गया। बहुत-सी पहिले मार चुका था। कठिनाई से आधी अक्षौहिणी सेना बची थी और जिस शक्ति के बल पर अर्जुन के मारे जाने की आशा थी, वह अब जा चुकी थी। अवश्य ही इस समय प्राण-रक्षा हो जाने से कौरव कर्ण का उत्साहपूर्वक सत्कार करने में लग गये थे। घटोत्कच जैसे पराक्रमी वीर के मारे जाने पर पाण्डव तो व्याकुल हो ही उठे, उनकी सेना का एक भी वीर नहीं था जो रो न उठा हो। लेकिन अकेले श्रीकृष्ण ऐसे थे जो हर्ष से सिंहनाद करने लगे थे और उछलकर उन्होंने अर्जुन का आलिंगन किया था। रथ को रोककर गर्जना करते हुए हर्ष से झूमकर वे नृत्य करने लगे। अर्जुन अपने सखा की इस अद्भुत प्रसन्नता से बहुत खिन्न होकर बोले- ‘कृष्ण ! हिडिम्बा-नन्दन घटोत्कच की मृत्यु ने हम सबको शोकमग्न कर दिया है और प्रसन्न होकर आप इस अनवसर में नाचने लगे है ? हमारी विपत्ति में तो आप प्रसन्न नहीं हुआ करते। आपके इस असाधारण प्रसन्नता का कोई बड़ा कारण होना चाहिए। वह कारण कितना भी गोपनीय हो, मुझे बतला दें। आपके इस हर्ष से मेरा धैर्य समाप्त हुआ जा रहा है। आपकी आज की प्रसन्नता आश्चर्यजनक है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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