पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
59. जयद्रथ-वध
‘अर्जुन सत्यप्रतिज्ञ हैं। वे अपनी प्रतिज्ञा छोड़ नहीं सकते। अत: अब इनके लिए शीघ्र चिता सज्जित करो !' दुर्योधन ने ही सबसे पहिले आदेश दिया। उसे अर्जुन की प्रतिज्ञा-रक्षा की सबसे अधिक चिन्ता हो गयी थी। वह साथ-साथ व्यंग करने लगा- ‘अर्जुन तुम तो व्यर्थ इस प्रतिज्ञा के पचड़े में पड़े। तुम्हारी शोभा विराट नगर में वृहन्नला बनकर रहने में ही थी। तुम कर्ण को, अश्वत्थामा को, अथवा हमको कभी जीत नहीं सकते, यह तुम्हें बहुत पहिले समझ लेना था। अब तुम्हारी प्रतिज्ञा पूर्ति में सहायक होने के अतिरिक्त हम और कर भी क्या सकते हैं।' अर्जुन रथ से उतर आये। श्रीकृष्ण अब भी रथ पर ही अश्वों की रश्मि सम्हाले बैठे थे। दुर्योधन ने उनकी ओर देखकर कहा- ‘पार्थ’ तुम इस डींग मारने वाले वासुदेव के बहकावे में आकर आज प्राण खो रहे हो। यह कितना अहंकारी और धोखा देने वाला है।' ‘दुर्योधन, बस !' अर्जुन का अत्यन्त क्रोध में भरा उग्र स्वर गूँजा- अब एक शब्द भी तुमने श्रीकृष्ण के सम्मान के विरुद्ध कहा या और कोई इस प्रकार बोला तो अब भी गाण्डीव मेरे करों में है और मैंने यह प्रतिज्ञा नहीं की है कि चिता में प्राणत्याग से पूर्व पाशुपतास्त्र का प्रयोग नहीं करूँगा। भली प्रकार सुन लो ! श्रीकृष्ण हम पाण्डवों के सदा सर्वस्व हैं। हम इनके श्रीचरणों में ही चित्त लगाकर देहत्याग की कामना करते हैं। इन सर्वसमर्थ सकलेश्वर की इच्छा को कोई भी व्यर्थ करने में समर्थ नहीं है। अर्जुन का जीवन और मरण दोनों इनके करों में है।' दुर्योधन भय से काँप उठा। कृपाचार्य ने उकसी भर्त्सना की। सब इस प्रसंग की ओर से उदासीन होकर चिता सजाने में ही जुट गये। चिता क्षणों में ही प्रस्तुत हो गयी। अर्जुन ने धनुष रखा और कवच उतारने को उद्यत हुए तो श्रीकृष्ण ने कहा- ‘विजय ! विधवा नारी के समान चितारोहण तुम्हारे उपयुक्त नहीं है। क्षत्रिय वीर के समान कवच पहिने, धनुष पर अपना सर्वोत्तम अस्त्र चढ़ाये तुम्हें चितारोहण करना चाहिए।' अर्जुन ने धनुष उठा लिया। उनको स्वप्न में देखे भगवान शंकर के पार्श्व से प्रकट ब्रह्मचारी की धनुष धारण की भंगी और उसके द्वारा उच्चारित मंत्र स्मरण आ गया। उन्होंने ठीक उसी प्रकार गाण्डीव पकड़ा, उसी मुद्रा में खड़े हुए और बाण धनुष पर चढ़ाकर उसे उसी मन्त्र से अभिमन्त्रित कर दिया। कौरवों के लिए इसमें आपत्ति करने का कोई कारण नहीं था। उनको यह सब व्यर्थ लगता था। चिता में अग्नि लगाने को उद्यत दु:शासन प्रज्वलित उल्मुक लिये खड़ा था। जयद्रथ पीछे के स्थान से आगे बढ़ आया। उसे किसी ने कहा था- ‘अब सूर्यास्त हो गया। तुम्हारे प्राण सुरक्षित हैं। अपने शत्रु को चिता रोहण करते देख लो !' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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