पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
59. जयद्रथ-वध
दुर्योधन बहुत चिन्तित था। उत्साहित था। दिन का चतुर्थ प्रहर प्रारम्भ हो गया था। अब यदि सुर्यास्त तक जयद्रथ की रक्षा की जा सके तो अर्जुन अपनी प्रतिज्ञानुसार जल मरेगा। उसने कर्ण को उत्साहित किया। कर्ण ने कहा- ‘भीमसेन के भयंकर एवं विशाल वाणों से मेरा अंग-अंग आहत हो चुका है। मेरा कोई अंग चेष्टा नहीं कर रहा है। मैं केवल कर्तव्य समझकर किसी प्रकार खड़ा हूँ। फिर भी आपके हित का शक्तिभर प्रयत्न करुंगा।' अर्जुन भी पूरे उत्साह में थे। वे भी श्री कृष्ण को शीघ्र जयद्रथ तक रथ ले जाने को कह रहे थे। लेकिन वह बहुत कठिन कार्य था। सब ओर से कौरव महारथियों ने उन्हे घेर लिया था और उन पर अनवरत वाणवृष्टि कर रहे थे। अर्जुन का पराक्रम कल्पना से परे था किन्तु कौरव महारथियों में भी कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा जैसे 6 महारथी थे और वे भी अपना पूरा पौरुष इस समय प्रकट कर रहे थे। ‘अर्जुन ! इन 6 महारथियों को पराजित किये बिना जयद्रथ को मारना संभव नहीं है।' श्रीकृष्ण अर्जुन की ओर मुख किया- ‘सूर्य अस्ताचल को जा रहे हैं।' अत: जो कुछ हो, उसमें डरना मत और मेरी बात ध्यान से सुनना। अर्जुन ने कह दिया- ‘अच्युत ! मैं सदा आपका आज्ञाकारी हूँ। श्रीकृष्ण की दृष्टि एक बार ऊपर उठी। अकस्मात् अन्धकार फैलने लगा। अब तक कौरव पक्ष में किसी को सूर्य की ओर देखने का समय ही नहीं मिला था। वे अर्जुन का वेग रेाकने में व्यस्त थे और जानते थे कि पलक झपकने का भी प्रमाद हुआ तो गाण्डीव से छूटा बाण प्राण ही पी जायगा। अब अचानक अन्धकार फैला तो उन्होंने मान लिया कि सूर्यास्त हो गया। दुर्योधन ने हर्ष से उछलकर शंख का विजयघोष प्रारम्भ कर दिया। द्रोणाचार्य बहुत दूर थे। अब भी व्यूह द्वार पर घोर युद्ध चल रहा था। दुर्योधन का शंखनाद उन्होंने सुना तो कुछ समझ नहीं सके। यदि वे समझ पाते तो व्यूह–द्वारा त्यागकर भी अपने इस बुद्धिहीन शिष्य को समझाने भागते क्योंकि हुआ केवल यह था कि सूर्य के सम्मुख एक ओर इतना सघन मेघ आ गया था श्रीकृष्ण की इच्छा से कि जहाँ सूचीव्यूह था, वहाँ दूर-दूर तक सूर्यास्त होने का भ्रम होने लगा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज