पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
5. जगद्गुरु
इसी प्रकार साधनोपदेष्टा गुरु के रूप में भी वही नाना रूपों में व्यक्त हो रहा है। वही जगद्गुरु है। परमात्मा प्रकृति से परे, त्रिगुणातीत है। यह बात आपकी समझ में आती है। तब यह भी आना ही चाहिए कि वह आपके प्रदान किये गुणों को स्वीकार करके सगुण बनता है। आप उसे जैसा मानते हैं, आपके लिये वह वैसा ही है। क्योंकि उसने कहा है-‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।‘[1] ‘अन्तर्बहि: पुरुषकालरुपै:, प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं च ।‘[2] सम्पूर्ण दृश्य प्रपंच परमात्मा ही है; किन्तु बाहर वह काल रूप में स्थित होकर मृत्यु बांट रहा है। बहिर्मुख होने पर- बाह्य जगत में आसक्त होने पर वह मृत्यु से मृत्यु की ओर जन्म-मरण के चक्र में डालता है। वह अन्तर्यामी पुरुष रूप में स्थित है और वहाँ अमृतदान करता है। उस अन्तर्यामी के पास अन्तर मुख होकर पहुँचना है यदि अमृतत्व की वाञ्छा है। उसके समीप कैसे पहुँचा जाय? यही उपदेश करने को उसका गुरु रूप है और यदि उसकी सच्ची उत्कण्ठा है उस तक पहुँचने की, गुरु रूप में वह मार्ग दर्शक बनकर आये बिना नहीं रह सकता। जो उस सर्वज्ञ, सर्वसमर्थ को ही प्राप्त करने चला है, उसकी रक्षा का दायित्व उस पर है जो निखिल लोक-नियन्ता है। उसी पर मार्ग दर्शन का भी दायित्व है और वह करुणावरुणालय है। तब उसे कोई ठग सकने में समर्थ है? सच्चे अभीप्सु को ठगने वाला न उत्पन्न हुआ, न कभी होगा और उसे मार्गदर्शक न मिले, यह असम्भव है। रसराज स्वरूप श्रीव्रजराज तनय की चर्चा अगले खण्ड में करनी है। भगवान् वासुदेव की चर्चा हो चुकी और किसी द्वारिकाधीश स्वरूप में उनके ऐश्वर्य, शील, आदि का भी वर्णन हुआ। वही जगद्गुरु हैं, परम गुरु स्वरूप की उनकी पूर्णता है जब पार्थ के रूप में वे नर रथ की रश्मि अपने करों में लेकर विराजमान होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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